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________________ समयसार १२६ यह बहत ही आश्चर्य और खेद की बात है! नानट्यतां तथापि - (वसन्ततिलका) अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः । रागादि-पुद्गल-विकार-विरुद्धशुद्ध चैतन्यधातुमयमूर्तिस्वं च जीवः ।।४।। यह तो अज्ञान की ही महिमा है, पर में एकत्व के मोह की ही महिमा है, मिथ्यात्व की ही महिमा है कि इतनी स्थूल बात भी अज्ञानी को समझ में नहीं आती।। इस कलश में आश्चर्य और खेद व्यक्त करने के उपरान्त अगले कलश की भूमिका बाँधते हुए आचार्य गद्य में लिखते हैं कि यदि मोह नाचता है तो नाचे, इससे हमें क्या प्रयोजन है; क्योंकि यह सम्पूर्ण नृत्य आखिर है तो पुद्गल का ही। यह नाचनेवाला मोह भी तो पुद्गल ही है - (हरिगीत ) अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में। बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में ।। यह जीव तो पदगलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है ।।४४।। इस अनादिकालीन महा-अविवेक के नाटक में वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, अन्य कोई नहीं; क्योंकि यह जीव तो रागादिक पुद्गल विकारों से विलक्षण शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है। ____ अत: आचार्यदेव कहते हैं कि यदि अज्ञानी का व्यामोह नाचता है तो नाचे, हम क्या करें ? हम तो अपने में जाते हैं। अरे भाई ! यह तो पुद्गल का नृत्य है, अज्ञान का नृत्य है; इसमें मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि मैं तो ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व हैं और मेरा परिणमन तो ज्ञानदर्शन-उपयोगमय है; इन २९ भावों रूप नहीं है। ___ मैं इन २९ प्रकार के भावों से पकड़ने में आनेवाला नहीं हूँ, पहिचानने में आनेवाला नहीं हूँ; मैं तो अपने चैतन्यलक्षण से ही लक्षित होनेवाला पदार्थ हूँ। मैं अपने चैतन्य लक्षण से ही पहिचाना जाऊँगा और मेरा चैतन्य का परिणमन ही पहिचानने का कार्य करेगा। न तो मैं रागादिभावों से पहिचाना जाऊँगा और न रागादिभाव पहिचानने का काम ही करेंगे; क्योंकि ये मेरे हैं ही नहीं, ये मुझमें हैं ही नहीं; ये तो मुझसे भिन्न पदार्थ हैं, पुद्गल हैं, अचेतन हैं, जड़ हैं। अत: आगामी कलश में आचार्यदेव कहते हैं कि इसतरह भेदज्ञान की भावना को धारावाही रूप से नचाते-नचाते जीव और अजीव का प्रगट विघटन हुआ नहीं कि भगवान आत्मा अनुभव में
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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