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जीवाजीवाधिकार
१२५ इसलिए अमूर्तत्व के आधार पर अर्थात् अमूर्तत्व को जीव का लक्षण मानकर जीव के स्वरूप को यथार्थ नहीं जाना जा सकता। अत: वस्तुस्वरूप के विवेचक भेदज्ञानियों ने अच्छी तरह
(वसन्ततिलका) जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसंतम् । अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भित्तोऽयं
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ।।४३।। परीक्षा करके, अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से रहित जीव का लक्षण चेतनत्व को कहा है। वह चेतनत्व लक्षण स्वयं प्रगट है और जीव के यथार्थ स्वरूप को प्रगट करने में पूर्ण समर्थ है।
अत: हे जगत के जीवो ! इस अचल एक चैतन्यलक्षण का ही अवलम्बन करो।
अत: यदि हमें निज भगवान आत्मा को जानना है, पहिचानना है, पाना है, अपनाना हैतो इस एक चैतन्य लक्षण का ही अवलम्बन करना होगा।
विशेष जानने की बात यह है कि यहाँ वर्णादि में सभी २९ प्रकार के भाव आ जाते हैं। अत: न केवल रूप, रस आदि ही मूर्तिक हैं; अपितु राग-द्वेष आदि विकारी भाव भी मूर्तिक ही हैं। अधिक क्या कहें; क्योंकि २९ भावों में संयमलब्धिस्थान जैसे भाव भी आते हैं, जिन्हें यहाँ पौद्गलिक कहकर मूर्तिक कहा गया है। अतः ये सभी भाव जीव के लक्षण नहीं बन सकते, जीव की पहिचान के चिह्न नहीं बन सकते। जीव की पहिचान का असली चिह्न तो उपयोग ही है, ज्ञानदर्शनमय उपयोग ही है। अत: आचार्यदेव आदेश देते हैं, उपदेश देते हैं, आग्रह करते हैं, अनुरोध करते हैं कि हे जगत के जीवो ! तुम एक इस चैतन्यलक्षण का ही अवलम्बन लो, आश्रय करो; क्योंकि इस
चैतन्यलक्षण से ही भगवान आत्मा की पहिचान होगी। ___ यह चैतन्यलक्षण स्वयं प्रगट है और त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा को प्रगट करने में पूर्ण समर्थ है तथा अचल है; इसकारण कभी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहें - यह चैतन्यलक्षण जीव का जीवन ही है। अत: इस लक्षण के आधार पर ही आत्मा की पहिचान हो सकती है, साधना और आराधना हो सकती है; क्योंकि आत्मा तो स्वलक्षण से स्वयं प्रगट ही है।
अब आचार्यदेव आगामी कलश में आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जब बात इतनी स्पष्ट है अर्थात् जीव स्वलक्षण से प्रगट ही है तो फिर अज्ञानियों की समझ में क्यों नहीं आता ?
(हरिगीत ) निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को। जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन-भिन्न ही हैं जानते।। जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह ।
अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है।।४३।। आचार्यदेव खेद और आश्चर्य व्यक्त करते हुए कह रहे हैं कि जब जीव और अजीव अपने सुनिश्चित लक्षणों से स्वयं ही उल्लसित होते हुए भिन्न-भिन्न प्रकाशमान हैं और ज्ञानीजन उन्हें भिन्न-भिन्न जानते हैं; पहिचानते हैं, अनुभव करते हैं; तब भी अज्ञानियों में पर में एकत्व का अनादि-अमर्यादित यह व्यामोह न जाने क्यों व्यापता है, यह मोह न जाने क्यों नाचता है ? -