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समयसार इसका आरंभ हुआ है और न कभी अन्त ही होनेवाला है। यह जन्म-मरण से रहित है; क्योंकि लोक में जन्म आदि का और मरण अन्त का सूचक है। जब यह आत्मा अनादि-अनन्त है तो इसके
(शार्दूलविक्रीडित ) वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः। इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितंनाव्याप्यतिव्यापि वा
व्यक्तं व्यंजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालंब्यताम् ।।४२।। जन्म-मरण कैसे हो सकते हैं ? इसे किसी ने बनाया भी नहीं है और न इसका कोई नाश ही कर सकता है; क्योंकि यह अनादि-अनन्त-अचल तत्त्व है।
अपने स्वभाव में अटलरूप से स्थित होने से यह अचल है। किसी भी स्थिति में यह अपने ज्ञानानन्दस्वभाव से चलायमान नहीं होता। अत: अपने में पूर्ण सुरक्षित है। इसे अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। ___ इसका निर्माणकर्ता, विनाशकर्ता और रक्षणकर्ता कोई नहीं है; क्योंकि यह स्वयं अनादिअनन्त और अचलतत्त्व है। यह ज्ञान-दर्शनस्वभावी होने से चैतन्य है; अपने चैतन्यस्वभाव से सदा प्रगट है और यह स्वयं जगमगाती हुई जलहलज्योति है, प्रकाशमान ज्योति है। यह कोई छुपा हुआ पदार्थ नहीं है, अपितु यह प्रकाशमान जलहलज्योति, सूर्य के समान स्वयं प्रकाशित हो रही है और जगत को प्रकाशित करने में भी पूर्ण समर्थ है।
ऐसा यह ज्ञान-दर्शनस्वभावी अनादि-अनन्त-अचल आत्मतत्त्व स्वयंसंवेद्य है, स्वानुभूति से जाना जा सकता है। 'नहीं जाना जा सकता' - ऐसा भी नहीं है और वर्णादि व रागादि से जाना जाये - ऐसा भी नहीं है, व्रत-शील-संयम से जाना जाये - ऐसा भी नहीं है। यह एकमात्र स्वानुभूति से ही जाना जा सकता है।
अब आगामी कलश में यह स्पष्ट करते हैं कि जीव का लक्षण चेतनत्व ही क्यों है ? मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(सवैया इकतीसा) मूर्तिक अमूर्तिक अजीव द्रव्य दो प्रकार,
इसलिए अमूर्तिक लक्षण न बन सके। सोचकर विचारकर भलीभाँति ज्ञानियों ने,
कहा वह निर्दोष लक्षण जो बन सके ।। अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषों से विरहित,
चैतन्यमय उपयोग लक्षण है जीव का। अत: अवलम्ब लो अविलम्ब इसका ही,
क्योंकि यह भाव ही है जीवन इस जीव का।।४२।। वर्णादि सहित मूर्तिक और वर्णादि रहित अमूर्तिक - इसप्रकार अजीव दो प्रकार का है।