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जीवाजीवाधिकार अचेतन मोहकर्म की प्रकृति के उदयपूर्वक होने से सदा पुद्गल ही हैं, अचेतन ही हैं; चेतन नहीं हैं, जीव नहीं हैं।
गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यऽस्वभावव्याप्तस्यात्मनोऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम् ।
एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबंधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात् पुद्गल एव, न तु जीव इति स्वयमायातम् ।
ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धम् ।।६८।। तर्हि को जीव इति चेत् -
(अनुष्टुभ् ) अनाद्यनंतमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम्।
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ।।४।। गुणस्थानों का नित्य-अचेतनत्व आगम से सिद्ध है और वे गुणस्थान भेदज्ञानियों को चैतन्यस्वभावी आत्मा से सदा ही भिन्न उपलब्ध हैं; इसलिए भी उनका सदा अचेतनत्व सिद्ध होता है।
इसीप्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान और संयमलब्धिस्थान भी पुद्गलकर्मपूर्वक होते होने से, इसकारण सदा ही अचेतन होने से पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। ऐसा स्वत:सिद्ध हो गया। इससे यह सिद्ध हुआ कि रागादिभाव जीव नहीं हैं।"
उक्त सम्पूर्ण कथन पर ध्यान देने से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ पुण्य-पापरूप सभी शुभाशुभ भावों को आत्मा से भिन्न अचेतन कहा जा रहा है, जड़ कहा जा रहा है, पुद्गल कहा जा रहा है। अरे भाई ! इनसे धर्म कैसे हो सकता है ? जब विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी जड़ हैं; तो फिर कौन-सा शुभभाव शेष रहा, जिसे धर्म कहा जाये ?
अब यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब ये भाव जीव नहीं हैं तो जीव क्या है, जीव कैसा है, जीव कौन है ? इसी प्रश्न के उत्तर में आगामी कलश लिखा गया है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त ।
स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त ।।४१।। जो अनादि है, अनन्त है, अचल है, स्वसंवेद्य है, प्रगट है, चैतन्यस्वरूप है और अत्यन्त प्रकाशमान है; वही जीव है।
उपर्युक्त २९ भावों से रहित यह भगवान आत्मा अनादि है, अनन्त है, अचल है। न तो कभी