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जीवाजीवाधिकार
१२७ प्रकाशित हो उठा, अनुभव में प्रतिष्ठित हो गया।
(मन्द्राकान्ता) इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः। विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्व्यक्तचिन्मात्रशक्त्या
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ।।४५।। इति जीवाजीवौ पृथग्भूत्वा निष्क्रांतौ।
इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्कः।
( हरिगीत ) जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकटविघटन होचला।। अब जबतलक हों भिन्न जीव-अजीव उसके पूर्व ही।
यहज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा।।४५।। इसप्रकार ज्ञानरूपी करवत (आरा) के निरन्तर चलाये जाने पर जबतक जीव और अजीव - दोनों ही प्रगटरूप से अलग-अलग नहीं हो पाये कि यह ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा अत्यन्त विकसित अपनी चैतन्यशक्ति से विश्वव्यापी होता हआ अतिवेग से अपने आप ही प्रगट प्रकाशित हो उठा।
उक्त छन्द में भेदज्ञान की उपयोगिता जबतक मुक्ति प्राप्त न हो, तबतक बताई गई है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी-अज्ञानी सभी को भेदज्ञान की भावना भानी चाहिए। मिथ्यात्व की भूमिका में दर्शनमोह के अभाव के लिए और सम्यग्दर्शन होने के बाद चारित्रमोह के अभाव के लिए यह भावना भाई जानी चाहिए। परमज्योति प्रगट हो जाने पर, केवलज्ञान हो जाने पर तो कोई विकल्प शेष रहता ही नहीं है। अत: वहाँ इस भेदज्ञान की भावना की आवश्यकता भी नहीं रहती है; विकल्पात्मक भावना की आवश्यकता नहीं रहती है; क्योंकि वहाँ तो भेदज्ञान का फल सम्पूर्णत: प्रगट हो गया है।
इसप्रकार इस जीवाजीवाधिकार का समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि 'इसप्रकार जीव और अजीव अलग-अलग होकर रंगभूमि में से बाहर निकल गये।'
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस जीवाजीवाधिकार में पर से एकत्व और ममत्व का निषेध कर अपने त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा में एकत्व-ममत्व स्थापित करने की प्रेरणा दी गई है; क्योंकि निज भगवान आत्मा में एकत्व-ममत्व का नाम ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक्चारित्र है, सच्चा मुक्ति का मार्ग है।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में जीवाजीव का प्ररूपक प्रथम अंक समाप्त हुआ।