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________________ १२० समयसार नहीं है; क्योंकि स्वर्ण निर्मित म्यान को लोग स्वर्ण के रूप में ही देखते हैं, तलवार के रूप में नहीं। वर्णादिसामग्रयमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य । ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यत: स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः ।।३९।। शेषमन्यद्व्यवहारमात्रम् - पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहमा बादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ।।६७।। पर्याप्तापर्याप्ता ये सूक्ष्मा बादराश्च ये चैव। देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः ।।६७।। ____ यत्किल बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ता: अप्रयोजनार्थः परप्रसिद्ध्या घृतघटवद्व्यवहारः। वर्णादिक जो भाव हैं, वे सब पुद्गलजन्य। एक शुद्ध विज्ञानघन, आतम इनसे भिन्न ।।३९।। अत: हे ज्ञानीजनो ! इन वर्णादिक से लेकर गुणस्थान पर्यन्त भावों को एक पुद्गल की ही रचना जानो, पुद्गल ही जानो; ये भाव पुद्गल ही हों, आत्मा न हों; क्योंकि आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञान का पुंज है; इसलिए इन भावों से भिन्न है। मूल बात तो यह है कि नामकर्म के उदय से होनेवाले वर्णादिभाव निश्चय से जीव नहीं हैं; उन्हें जो जीव कहा जाता है, वह मात्र असद्भूतव्यवहारनय का कथन ही है। इसी बात को इस ६७वीं गाथा में कहा जा रहा है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-बादर आदि सब । जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ॥६७।। शास्त्रों में देह के पर्याप्तक, अपर्याप्तक, सूक्ष्म, बादर आदि जितने भी नाम जीवरूप में दिये गये हैं; वे सभी व्यवहारनय से ही दिये गये हैं। यद्यपि यह भगवान आत्मा ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का रसकन्द है, ज्ञानानन्दस्वभावी है; तथापि शास्त्रों में भी इस आत्मा को पर्याप्तकजीव, अपर्याप्तकजीव, सूक्ष्मजीव, बादरजीव, एकेन्द्रियजीव, द्वीन्द्रियजीव, संज्ञीजीव, असंज्ञीजीव आदि नामों से अभिहित किया जाता है। शास्त्रों का यह कथन परमार्थकथन नहीं है, मात्र असद्भूतव्यवहारनय का कथन ही है। इस कथन को परमार्थकथन के समान सत्यार्थ मानकर इन्हें सत्यार्थ जीव नहीं मान लिया जाये - इस गाथा में इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कर विशेष सावधान किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति और कलश दोनों में ही घी के घड़े का उदाहरण देकर बात स्पष्ट की है; जो इसप्रकार है - "बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त - इन
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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