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________________ जीवाजीवाधिकार ११९ "निश्चयनय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से जो भाव जिससे किया जाता है, वह वही होता है। इस नियम के अनुसार जिसप्रकार सोने का पत्र (वर्क) सोने से निर्मित होने से क्रियमाणं कनकमेव, न त्वन्यत्, तथा जीवस्थानानि बादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव, न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्यमानशरीरादिमूर्तकार्यानुमेयं च। एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननान्यपि पुद्गलमयनामकर्म प्रकतिनिर्वत्तत्वे सति तदव्यतिरेकाज्जीवस्थानैरेवोक्तानि।। ततोन वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धान्तः ।।६५-६६।। (उपजाति) निवळते येन यदव किंचित् तदेव तत्स्यान कथंचनान्यत् । रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं पश्यंति रुक्मं न कथंचनासिम् ।।३८।। सोना ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों के द्वारा किये जाने से पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। नामकर्म की प्रकृतियों की पुद्गलमयता तो आगम में प्रसिद्ध ही है और अनुमान से भी जानी जा सकती है; क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले शरीरादि मूर्तिकभाव कर्मप्रकृतियों के कार्य हैं; इसलिए कर्म प्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं - ऐसा अनुमान किया जा सकता है। जिसप्रकार यहाँ जीवस्थानों को पौद्गलिक सिद्ध किया है; उसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गल से अभिन्न हैं। अत: मात्र जीवस्थानों को ही पुद्गल कहे जाने पर भी इन सभी को पुद्गलमय कहा गया समझ लेना चाहिए। अतः यह निश्चय सिद्धान्त है, अटल सिद्धान्त है कि वर्णादिक जीव नहीं हैं।" ध्यान रहे, २९ भावों में से यहाँ वे ही भाव लिये हैं, जो नामकर्म के उदय से होते हैं; क्योंकि मोहकर्म के उदय से होनेवाले भावों को ६८वीं गाथा में लेंगे। आचार्य अमृतचन्द्र ने जो बात टीका में स्पष्ट की है, उसी को उन्होंने इसी टीका में समागत दो कलशों में व्यक्त किया है, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) जिस वस्तु से जो बने, वह हो वही न अन्य । स्वर्णम्यान तो स्वर्ण है, असि है उससे अन्य ।।३८।। जिस वस्तु से जो भाव बनता है, वह भाव वह वस्तु ही है; किसी भी प्रकार अन्य वस्तु
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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