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________________ १०४ समयसार टंकोत्कीर्ण विराजमान है। (मालिनी) सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् । इममुपरि चरंतं चारु विश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनतम् ।।३५।। (अनुष्टुभ् ) चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम् । अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावा: पौद्गलिका अमी ।।३६।। अब ४९वीं गाथा में कहे गये भगवान आत्मा के अनुभव की प्रेरणा देते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कलशरूप काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर। चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर ।। है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धातमा। अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा ।।३५।। हे भव्यात्मन् ! चैतन्यशक्ति से रहित अन्य समस्त भावों को छोड़कर और अपने चैतन्यशक्तिमात्र भाव को प्रगटरूप से अवगाहन करके लोक के समस्त सुन्दरतम पदार्थों के ऊपर तैरनेवाले अर्थात् पर से पृथक् एवं सर्वश्रेष्ठ इस एकमात्र अविनाशी आत्मा को अपने आत्मा में ही देखो, अपने-आप में ही साक्षात्कार करो, साक्षात् अनुभव करो। ४९वीं गाथा में आत्मा के अरसादि विशेषणों में अन्तिम विशेषण के रूप में चेतनागुण विशेषण आया है और उसे समस्त विवादों को नाश करनेवाला बताया गया है। वह चेतनागुण भगवान आत्मा का असाधारण स्वभाव होने से आत्मा की पहिचान का चिह्न है, लक्षण है। इसीकारण वह समस्त विवादों का नाश करनेवाला भी है। उसके साथ अविनाभावीरूप से रहनेवाले अनन्तगुण भी अभेदरूप से उसमें समाहित हैं। उसे यहाँ चित्शक्तिमात्र नाम से कहा गया है, उसे ज्ञानमात्र नाम से भी कहा जाता है। अब आगामी गाथाओं की उत्थानिका स्वरूप कलश लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है (दोहा) चित् शक्ति सर्वस्व जिन, केवल वे हैं जीव । उन्हें छोड़कर और सब, पुद्गलमयी अजीव ।।३६।। जिसका सर्वस्व, जिसका सार चैतन्यशक्ति से व्याप्त है; वह जीव मात्र इतना ही है; क्योंकि इस चैतन्यशक्ति से शून्य जो भी अन्यभाव हैं; वे सभी पौद्गलिक हैं, पुद्गलजन्य हैं, पुद्गल ही हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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