________________
जीवाजीवाधिकार
१०३ व्यक्तता को स्पर्श नहीं करता; अत: जीव अव्यक्त है। त्वात्, स्वयमेव हि बहिरंत:स्फुटमनुभूयमानत्वेऽपि व्यक्तोपेक्षणेन प्रद्योतमानत्वाच्चाव्यक्तः ।
रसरूपगंधस्पर्शशब्दसंस्थानव्यक्तत्वाभावेऽपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिंगग्रहणः। समस्तविप्रतिपत्तिप्रमाथिना विवेचकजनसमर्पितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यंतसौहित्यमंथरेणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्यसाधारणतया स्वभावभूतेन स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुणेन नित्यमेवांत:प्रकाशमानत्वात् चेतना
गुणश्च।
स खलु भगवानमलालोक इहैकष्टकोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः ।।४९।।
(६) स्वयं अपने से ही बाह्याभ्यन्तर स्पष्ट अनुभव में आने पर भी व्यक्तता के प्रति उदासीन रूप से प्रकाशमान है; अत: जीव अव्यक्त है।
- इसतरह छह प्रकार से व्यक्तता के निषेध से भगवान आत्मा अव्यक्त है। __ - इसप्रकार जीव में रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तता का अभाव होने पर भी वह स्वसंवेदन ज्ञान के बल से स्वयं सदा प्रत्यक्ष होने से अकेले अनुमान से ही नहीं जाना जाता; अत: जीव अलिंगग्रहण है।
जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानियों को सौंप दिया है; जो समस्त लोकालोक को ग्रासीभूत करके अत्यन्त तृप्ति से मन्थर हो गया है, उपशान्त हो गया है, अत्यन्त स्वरूप सौख्य से तृप्त होने के कारण बाहर निकलने को अनुद्यमी हो गया है; अत: कभी भी किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और जीव से भिन्न अन्यद्रव्यों में नहीं पाये जाने के कारण स्वभावभूत है - ऐसा चेतनागुण समस्त विवादों को नाश करनेवाला है। सदा अपने अनुभव में आनेवाले ऐसे इस चेतनागुण के द्वारा जीव सदा प्रकाशमान है; अत: जीव चेतनागुणवाला है।
इसप्रकार इन नौ विशेषणों से युक्त, चैतन्यरूप, निर्मल प्रकाशवाला, एक भगवान आत्मा परमार्थस्वरूप जीव है, जो इस लोक में भिन्नज्योतिस्वरूप टंकोत्कीर्ण विराजमान है।"
रस, रूप, गन्ध और स्पर्श - ये चार पुद्गल के गुण हैं और शब्द पुद्गल की पर्याय है। ये पाँचों पाँच इन्द्रियों के विषय हैं। यहाँ इन पाँचों के निषेधरूप पाँच विशेषण आरम्भ में ही लिये गये हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि परमार्थजीव इन्द्रियों का विषय नहीं है; अत: इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता। ___ अरस, अरूप, अगंध, अस्पर्श, अशब्द, अव्यक्त, अनिर्दिष्टसंस्थान और अलिंगग्रहण - ये आठ विशेषण तो निषेधपरक हैं; परन्तु चेतनागुणवाला - यह नौवाँ विशेषण विधिपरक है। चेतनागुण आत्मा का मूलस्वभाव है। अत: आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में इसकी महिमा बतानेवाले अनेक विशेषण लगाये हैं; जो आत्मख्याति के अर्थ में दिये ही जा चुके हैं । अत: उनके बारे में कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है।
टीका के अन्त में कहा गया है कि इन अरसादि नौ विशेषणों से युक्त, चैतन्यस्वरूप, निर्मल प्रकाशवाला, एक भगवान आत्मा ही परमार्थस्वरूप जीव है: जो इस लोक में पर से भिन्न ज्योतिस्वरूप