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समयसार से शब्द नहीं सुनता; अत: अशब्द है। स्वभावत: क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेंद्रियावलंबेन शब्दाश्रवणात् सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलशब्दवेदनापरिणामापन्नत्वेन शब्दाश्रवणात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छब्दपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं शब्दरूपेणापरिणमनाच्चाशब्दः ।
द्रव्यांतरारब्धशरीरसंस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात्, नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानंतशरीरवर्तित्वात्, संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमानत्वात्, प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणतसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलितसहजसंवेदनशक्तित्वेऽपि स्वयमखिललोकसंवलनशून्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यंतमसंस्थानत्वाच्चानिर्दिष्टसंस्थानः।
षड्द्रव्यात्मकलोकाज्ज्ञेयाव्यक्तादन्यत्वात्, कषायचक्राद्भावकाव्यक्तादन्यत्वात्, चित्सामान्य -निमग्नसमस्तव्यक्तित्वात्,क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात्, व्यक्ताव्यक्तमिश्रितप्रतिभासेऽपि व्यक्तास्पर्श
(४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी शब्द नहीं सुनता; अत: अशब्द है।
(५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक शब्द संवेदना परिणाम को पाकर शब्द नहीं सुनता, अत: अशब्द है।
(६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी जो सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से शब्द के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं शब्दरूप परिणमित नहीं होता; अत: अशब्द है।
- इसतरह छह प्रकार से शब्दपर्याय के निषेध से आत्मा अशब्द है।
(१) पुद्गलद्रव्य से रचित शरीर के संस्थान (आकार) से जीव को संस्थानवाला नहीं कहा जा सकता; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है।
(२) अपने नियतस्वभाव से अनियतसंस्थानवाले अनन्त शरीरों में रहता है; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है।
(३) संस्थान नामक नामकर्म का विपाक (फल) पुद्गलों में ही कहा जाता है, जीव में नहीं; अतः जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है।
(४) भिन्न-भिन्न संस्थानरूप से परिणमित समस्त वस्तुओं के स्वरूप के साथ स्वाभाविक संवेदन शक्ति से सम्बन्धित होने पर भी जीव समस्त लोक के मिलाप से रहित है; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है।
- इसतरह चार प्रकार से संस्थान के निषेध से अथवा संस्थान के कथन के निषेध से भगवान आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थान है। (१) षड्द्रव्यात्मक लोक ज्ञेय है, अत: व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है; अत: अव्यक्त है। (२) कषायचक्ररूप भावकभाव व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है; अत: अव्यक्त है। (३) चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव अव्यक्त है। (४) क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं होने से जीव अव्यक्त है। (५) व्यक्तता और अव्यक्तता एकमेक मिश्रितरूप से प्रतिभासित होने पर भी वह केवल