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जीवाजीवाधिकार
न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाको जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् ।
न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमंदत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावाय विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् ।
न खलु मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीवः कार्त्स्यत: कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् ।
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न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात्खट्वाशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति ।
इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धिं प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः । । ४४।।
(५) समस्त जगत को पुण्य-पापरूप से व्याप्त करता हुआ कर्मविपाक भी जीव नहीं है; क्योंकि शुभाशुभभाव से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
(६) साता - असातारूप से व्याप्त समस्त तीव्रता - मन्दतारूप गुणों के द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्म का अनुभव भी जीव नहीं है; क्योंकि सुख-दुःख से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
(७) श्रीखण्ड की भाँति उभयात्मकरूप से मिले हुए आत्मा और कर्म - दोनों मिलकर भी जीव नहीं हैं; क्योंकि सम्पूर्ण कर्मों से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।
(८) अर्थक्रिया में समर्थ कर्म का संयोग भी जीव नहीं है; क्योंकि आठ लकड़ियों के संयोग से बने पलंग से भिन्न पलंग पर सोनेवाले पुरुष की भाँति, कर्मसंयोग से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावी जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।"
इसप्रकार आठ प्रकार की गलत मान्यताओं के निराकरण की बात तो यहाँ स्वानुभवगर्भित युक्ति से कही है। इसीप्रकार की अन्य कोई मान्यतायें हों तो उनका भी निराकरण इसीप्रकार किया जा सकता है और किया जाना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि सर्व परभावों से भिन्न चैतन्यस्वभावी जीव भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर है, अतः अज्ञानियों द्वारा कल्पित मान्यतायें ठीक नहीं हैं।
उक्त समस्त विषयवस्तु को एक वाक्य में इसप्रकार समेट सकते हैं - स्वयं उत्पन्न हुए रागद्वेषरूप अध्यवसान जीव नहीं हैं, अनादि-अनन्त संसरणरूप क्रिया में क्रीड़ा करता हुआ कर्म नहीं है, रागरस से भरे हुए अध्यवसानों की सन्तति जीव नहीं है, नोकर्मरूप शरीर जीव नहीं है, शुभाशुभभावरूप कर्मविपाक जीव नहीं है, तीव्रता - मन्दता और सुख - दुःखरूप कर्म का अनुभव जीव नहीं है, आत्मा और कर्म की मिलावट जीव नहीं है और अर्थक्रिया करने में समर्थ कर्म का संयोग भी जीव नहीं है; क्योंकि इन सबसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।