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________________ समयसार (मालिनी) विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतःसन्पश्य षण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननुकिमनुपलब्धि ति किंचोपलब्धिः ।।३४।। अतः अन्य विकल्पों से विराम लेकर सर्वज्ञकथित और भेदज्ञानियों द्वारा अनुभूत आत्मा को जानकर आत्मकल्याण में प्रवृत्त होना चाहिए। आत्मानुभव की प्रेरणा देनेवाले इस कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) हे भव्यजन! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से। अब तोरुको निज को लखो अध्यात्म के अभ्यास से।। यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना। तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना ।।३४।। हे भव्य ! हे भाई !! अन्य व्यर्थ के कोलाहल करने से क्या लाभ है ? अतः हे भाई! तू इस अकार्य कोलाहल से विराम ले, इसे बन्द कर दे और जगत से निवृत्त होकर एक चैतन्यमात्र वस्तु को निश्चल होकर देख ! ऐसा छहमास तक करके तो देख! तुझे अपने ही हृदय-सरोवर में पुद्गल से भिन्न, तेजवन्त, प्रकाशपुंज भगवान आत्मा की प्राप्ति होती है या नहीं? तात्पर्य यह है कि ऐसा करने से तुझे भगवान आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी। वस्तुत: निज आत्मा की प्राप्ति उतनी कठिन है नहीं, जितनी समझ ली गई है। क्योंकि वह भगवान आत्मा तू स्वयं ही है और उसे जानना भी स्वयं को ही है। अत: यह क्रिया पूर्णत: स्वाधीन है, इसमें रंचमात्र भी पराधीनता नहीं है। अत: यहाँ यह कहा गया है कि इस अकार्य कोलाहल से विराम लेकर छह मास तक एकाग्रचित्त होकर लगातार देहदेवल में विराजमान, परन्तु देह से भिन्न निज भगवान आत्मा को जाननेपहिचानने और उसी का अनुभव करने का प्रयास कर! ऐसा करने पर तुझे आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी; क्योंकि आत्मा की प्राप्ति का स्वरूप ऐसा ही है, विधि ऐसी ही है, प्रक्रिया ऐसी ही है। अकार्यकोलाहल माने व्यर्थ का हल्ला-गुल्ला, व्यर्थ का बकवाद । जिस वचनालाप से, तर्कवितर्क से कोई लाभ न हो, अपने मूल प्रयोजन की सिद्धि न हो; उस वचनालाप को, तर्क-वितर्क को अकार्यकोलाहल कहते हैं। यहाँ आत्मा संबंधी चर्चा को भी अकार्यकोलाहल कहकर निषेध किया गया है; क्योंकि भगवान आत्मा की प्राप्ति तो प्रत्यक्षानुभव से ही होती है। ध्यान रखने की बात यह है कि यहाँ आत्मा संबंधी व्यर्थ के तर्क-वितर्क का ही निषेध किया है; अनावश्यक बौद्धिकव्यायाम का ही
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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