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________________ समयसार यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिर्विश्वसाक्षिभिरहद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ता: संतश्चैतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुंनोत्सहंते ततो न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः। एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः । इयं तु स्वानुभवगर्भिता युक्तिः। न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवस्तथाविधाध्यवसानात्कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया अतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खल्वनाद्यनंतपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणलक्षणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीवः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु तीव्रमंदानुभवभिद्यमानदुरंतरागरसनिर्भराध्यवसानसंतानो जीवस्ततोतिरिक्तत्वे नान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । नखलु नवपुराणावस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जीव: शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । “विश्व के समस्त पदार्थों को साक्षात् देखनेवाले वीतरागी सर्वज्ञ अरहन्त परमात्मा द्वारा ये समस्त अध्यवसानादिभाव पुद्गलद्रव्य के परिणाममय कहे गये हैं। अत: वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होने में समर्थ नहीं । चूँकि जीवद्रव्य को, चैतन्यस्वभाव से शून्य पुद्गलद्रव्य से भिन्न कहा गया है; इसलिए जो इन अध्यवसानादि को जीव कहते हैं; वे वस्तुतः परमार्थवादी नहीं हैं; क्योंकि उनका पक्ष आगम, युक्ति और स्वानुभव से बाधित है। वे जीव नहीं हैं' - ऐसा जो सर्वज्ञ का वचन, वह तो आगम है और यह (निम्नांकित) स्वानुभवगर्भित युक्ति है (१) नैसर्गिक (स्वयं से ही उत्पन्न हुए - स्वाभाविक) राग-द्वेष से मलिन अध्यवसान जीव नहीं हैं; क्योंकि जिसप्रकार कालेपन से भिन्न सुवर्ण सभी को दिखाई देता है; उसीप्रकार अध्यवसान से भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। (२) अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्य का अवयव है - ऐसी एक संसरणरूप क्रिया के रूप में क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। (३) तीव्र-मन्द अनुभव से भेदरूप होते हुए, दुरन्त रागरूप रस से भरे हुए अध्यवसानों की सन्तति भी जीव नहीं है; क्योंकि उस सन्तति से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। (४) नई-पुरानी अवस्थादिक के भेद से प्रवर्तमान नोकर्म जीव नहीं है; क्योंकि शरीर से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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