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________________ जीवाजीवाधिकार ( शार्दूलविक्रीडित ) जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदान् । आसंसारनिबद्धबंधनविधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फुटत् ।। आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं । धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत् ।।३३ ।। अथ जीवाजीवावेकीभूतौ प्रविशतः । मंगलाचरण (दोहा) रागादि वर्णादि से है, यह आतम भिन्न । शुद्ध-बुद्ध चैतन्यमय, और अखण्ड अनन्य ।। इस अधिकार के आरंभ में आचार्य लिखते हैं कि अब जीव और अजीव एक होकर रंगमंच पर प्रवेश करते हैं। इस अधिकार में मूल गाथायें आरंभ करने के पूर्व आत्मख्यातिकार आचार्य अमृतचन्द्र मंगलाचरण के रूप में एक छन्द लिखते हैं; जिसमें वे उस ज्ञान की महिमा गाते हैं; जो ज्ञान जीव और अजीव के इस भेद को जान लेता है। आत्मख्याति के मंगलाचरण के छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है। ( सवैया इकतीसा ) जीव और अजीव के विवेक से है पुष्ट जो, ऐसी दृष्टि द्वारा इस नाटक को देखता । अन्य जो सभासद हैं उन्हें भी दिखाता और, दुष्ट अष्ट कर्मों के बंधन को तोड़ता । जाने लोकालोक को पै निज में मगन रहे, विकसित शुद्ध नित्य निज अवलोकता । ऐसो ज्ञानवीर धीर मंग भरे मन में, स्वयं ही उदात्त और अनाकुल सुशोभता ।। ३३॥ इस नाटक के रंगमंच पर उदित यह ज्ञान मन को आनन्दित करता हुआ सुशोभित हो रहा है। यह ज्ञान जीव और अजीव के बीच भेदविज्ञान करानेवाली उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि से जीव और अजीव की भिन्नता को स्वयं भी भलीभाँति जानता है और इस नाटक को देखनेवाले सभासदों को भी दिखाता है, उन्हें इनकी भिन्नता की प्रतीति उत्पन्न कराता है। अनादि संसार से दृढ़ बंधन में बँधे हुए ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश करके जो विशुद्ध हुआ है, स्फुट हुआ है, कली के समान विकसित हुआ है और जो सदा अपने आत्मारूपी बाग में, वन में ही रमण करता है; यद्यपि उसमें अनन्त ज्ञेयों के आकार झलकते हैं; तथापि जो उनमें नहीं रमता, अपने स्वरूप में ही रमता है, उस ज्ञान का प्रकाश अनन्त है और वह प्रत्यक्ष तेज से नित्य उदयरूप है। वह ज्ञान धीर है, उदात्त है, धीरोदात्त है, अनाकुल है और मन को आनन्दित करता हुआ सुशोभित है, विलास कर रहा है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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