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________________ ८६ समयसार में अपनेपन की मान्यता को निजरस के बल से जड़मूल से उखाड़ फेंका है और महान ज्ञानप्रकाश प्रगट किया है । अत: इस ज्ञानप्रकाश के रहते मुझे मोह के पुन: उत्पन्न होने की कोई आशंका नहीं है । इसप्रकार मैं सबसे भिन्न निज स्वरूप का अनुभव करता हुआ प्रतापवन्त हूँ । आचार्यदेव स्वयं तो ज्ञानसागर आत्मा में डुबकी लगा ही रहे हैं। अब आगामी कलश के माध्यम से सम्पूर्ण जगत को भी आमन्त्रण दे रहे हैं, प्रेरणा दे रहे हैं कि हे जगत के जीवो ! तुम भी इस ज्ञानसागर में डुबकी लगाओ और अतीन्द्रिय-आनन्द को प्राप्त कर अनन्तसुखी हो जाओ । मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( वसन्ततिलका) मज्जंतु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति शांतरसे समस्ताः । आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंधुः ।।३२।। इति श्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पूर्वरङ्गः समाप्तः । हरिगीत ) सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा । विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा ।। हे भव्यजन ! इस लोक के सब एक साथ नहाइये । अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो जाइये || ३२ || यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रमरूपी आड़ी चादर को समूलतया डुबोकर, दूरकर, हटाकर स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है, पूर्णतया प्रगट हो गया है । अत: अब हे लोक के समस्त लोगो ! लोकपर्यन्त उछलते हुए उसके शान्तरस में सब एकसाथ ही मग्न हो जाओ । पूर्वरंग प्रकरण का अन्तिम कलश होने से इस कलश में आचार्य अमृतचन्द्र ने अपने शिष्यों को, पाठकों को ज्ञान और आनन्द से लबालब भरे हुए इस भगवान आत्मा को देखने-जानने और इसी में जमने-रमने का आदेश दिया है, उपदेश दिया है, आशीर्वाद दिया है, आमन्त्रण दिया है, प्रेरणा दी है; वह सबकुछ दिया है, जो उनके पास अपने शिष्यों को, पाठकों को देने के लिए था। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में आचार्य अमृतचन्द्र ने नाटकीय तत्त्व देखे । इसकारण उन्होंने आत्मख्याति टीका में उसे नाटक के रूप में प्रस्तुत किया। उनके इस नाटकीय प्रस्तुतीकरण को आचार्य जयसेन ने भी स्वीकार किया । पण्डित राजमलजी ने तो अपनी कलश टीका में इसे और भी अधिक उजागर किया। उन्हीं से प्रेरणा पाकर कविवर बनारसीदासजी ने समयसार की विषयवस्तु के आधार पर रचित अपने ग्रन्थ का नाम ही नाटक समयसार रखा है। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने भी उसे उभारा है। उक्त सम्पूर्ण विवेचन में जो नाट्यशास्त्रों की परम्परागत पद्धति का अनुसरण किया गया है; वह तत्कालीन होने से आज के संदर्भ में पुरानी पड़ गई है; अतः आज के लोगों को सहज पकड़ में नहीं आती। समयसार और आत्मख्याति की नाटकीयता को समझने के लिए हमें प्राचीन नाटक पद्धति का थोड़ा-बहुत परिचय अवश्य होना चाहिए । अध्यात्म का अधिकार होने से हम यहाँ उसके विस्तार में जाना उचित नहीं समझते हैं । अतः जिन्हें विशेष जिज्ञासा हो, उन्हें तत्सम्बन्धी साहित्य के अध्ययन से अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहिए ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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