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पूर्वरंग
परिणमित हुआ; अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त हुआ; वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि मैं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा हूँ और मेरे अनुभव से ही प्रत्यक्ष ज्ञात होता हूँ ।
मैं एक हूँ; क्योंकि चिन्मात्र आकार के कारण समस्त क्रमरूप और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यावहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता ।
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मैं शुद्ध हूँ; क्योंकि नर-नारकादि जीव के विशेष और अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष स्वरूप व्यावहारिक नवतत्त्वों से टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावरूप भाव के द्वारा अत्यन्त भिन्न हूँ ।
मैं दर्शन - ज्ञानमय हूँ; क्योंकि चिन्मात्र होने से सामान्य- विशेष उपयोगात्मकता का उल्लंघन नहीं करता ।
स्पर्शरसगंधवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतत्वेऽपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात्परमार्थतः सदैवारूपी, इति प्रत्यगयं स्वरूपं संचेतयमानः प्रतपामि ।
एवं प्रतपतश्च मम बहिर्विचित्रस्वरूपसंपदा विश्वे परिस्फुरत्यपि न किञ्चनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति, स्वरसत एवापुन:प्रादुर्भावाय समूलं मोहमुन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फुरितत्वात् ।। ३८ ।।
मैं परमार्थ से सदा ही अरूपी हूँ; क्योंकि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण जिसके निमित्त हैं - • ऐसे संवेदनरूप परिणमित होने पर भी स्पर्शादिरूप स्वयं परिणमित नहीं होता ।
- इसप्रकार सबसे भिन्न निज स्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवन्त हूँ । इसप्रकार प्रतापवन्त वर्तते हुए मुझमें मेरी विचित्र स्वरूपसम्पदा के द्वारा यद्यपि बाह्य समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं; तथापि मुझे कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप भासते नहीं कि जो भावकरूप और ज्ञेयरूप से मेरे साथ होकर मुझमें पुनः मोह उत्पन्न करें; क्योंकि निजरस से ही मोह को, पुन: अंकुरित न हो - इसप्रकार मूल से ही उखाड़कर, नाश करके; महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है।"
उक्त कथन में प्रबल आत्मविश्वास भरा हुआ है। ज्ञानी जानता है कि अनन्त बाह्य पदार्थ मेरे ज्ञान में झलकते हैं - तो इसमें क्या है ? यह तो मेरी विचित्र स्वरूपसम्पदा है, इससे मुझे कोई भय नहीं है, इससे मुझे इन्कार भी नहीं; क्योंकि यह तो मेरे स्वभाव की ही विचित्रता है; इसमें कुछ भी ऐसा नहीं, जो मेरे लिए अहितकारी हो ।
मेरी स्वरूपसम्पदा में झलकनेवाले परपदार्थ मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ते । हाँ, जब मैं उनमें अपनापन करता हूँ, उन्हें अपना जानता हूँ; तभी मोह उत्पन्न होता है; परन्तु मुझे तो ज्ञानप्रकाश प्रगट हो गया है; अतः मुझमें झलकते हुए भी वे पदार्थ मुझे मुझरूप भासित नहीं होते । अतः मुझमें मोह भी उत्पन्न नहीं करते ।
परपदार्थों को जानने मात्र से उनसे मोह उत्पन्न नहीं होता; मोह तो उन्हें अपना जानने से, उन्हें अपना मानने से, उनमें जमने - रमने से उत्पन्न होता है । किन्तु मैंने पर में, ज्ञेयभावों में, भावकभावों