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समयसार
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नहीं रहा। इसकारण उपयोग अपने आप ही अपने में स्थिर हो गया । परपदार्थों से अपनापन टूट गया, अपने में अपनापन आ गया और उपयोग अपने में ही समा गया। इसप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्र प्रगट हो गया, भगवान आत्मा सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणत हो गया।
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इसप्रकार दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणत आत्मा को स्वरूपसंचेतन कैसा होता है ? तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को प्राप्त आत्मा, मोक्षमार्ग में स्थित आत्मा स्वयं के सम्बन्ध में क्या सोचता है, अपने आत्मा के बारे में क्या सोचता है; उसकी चिन्तन-प्रक्रिया कैसी होती है ?
इसी प्रश्न के उत्तर में ३८वीं गाथा का जन्म हुआ है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथैवं दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यास्यात्मनः कीदृक् स्वरूपसंचेतनं भवतीत्यावेदयन्नुपसंहरतिअहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो सदारुवी ।
our faar मज्झकिंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ||३८|| अहमेकः खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी । नाप्यस्ति मम किंचिदप्यन्यत्परमाणुमात्रमपि ।। ३८ ।।
यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यंतमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथंचनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्तविस्मृतचामीकरावलोकनन्यायेन परमेश्वरमात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूतः स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं ज्योति:, समस्तक्रमाक्रमप्रवर्त्तमानव्यावहारिकभावैश्चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः, नारकादिजीवविशेषाजीव
पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्त्वेभ्यष्टंकोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभाव
भावेनात्यंतविविक्तत्वाच्छुद्धः, चिन्मात्रतयासामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणाद्दर्शनज्ञानमयः,
( हरिगीत )
मैं एक दर्शन - ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं ।
ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ।। ३८ ।।
दर्शन - ज्ञान - चारित्र परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से मैं सदा ही एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन - ज्ञानमय हूँ, अरूपी हूँ और अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं, परमाणुमात्र भी मेरे नहीं हैं।
इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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" जिसप्रकार कोई पुरुष अपनी मुट्ठी में रखे सोने को भूल गया हो, पर किसी के ध्यान दिलाने पर या स्वयं स्मरण आ जाने पर उसे देखे और आनन्दित हो; उसीप्रकार ( उसी न्याय से) अनादि मोहरूप अज्ञान से उन्मत्तता के कारण जो आत्मा अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था, अपने परमेश्वर आत्मा को भूल गया था; विरक्त गुरु के द्वारा निरन्तर समझाये जाने पर, किसीप्रकार समझकर, सावधान होकर; अपने आत्मा को जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके, उसमें तन्मय होकर, जो सम्यक्प्रकार एक आत्माराम हुआ, दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप