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________________ ४० समाधि और सल्लेखना आराधना को प्राप्त हुए। • कुम्भकार नगरी में कोल्हू में पिलने पर भी अभिनन्दनादि पाँच सौ मुनि समभावपूर्वक आराधना को प्राप्त हुए । • सुबन्धु नामक शत्रु ने गौशाला में आग लगा दी; उसमें जलने पर भी चाणक्य मुनिराज, प्रायोपगमन संन्यास धारण करके संक्लेशरहित उत्तम अर्थ को प्राप्त हुए। इसप्रकार उपसर्गादि वेदना प्रसंग आने पर भी आराधना में अडिग रहनेवाले अनेक शूरवीर मुनिवरों का स्मरण किया है। सभी भव्य जीव ऐसे मंगलमय समाधिमरण को धारण कर अपने जीवन में की गई आत्मा की आराधना तथा धर्म की साधना को सफल करते हुए सुगति प्राप्त कर सकते हैं। उपसंहार सारांश रूप में कहें तो आधि, व्याधि और उपाधि से रहित आत्मा निर्मल परिणामों का नाम समाधि है। आधि अर्थात् मानसिक चिन्ता, व्याधि अर्थात् शारीरिक रोग और उपाधि अर्थात् पर के कर्तृत्व का बोझ - समाधि इन तीनों से रहित आत्मा की वह निर्मल परिणति है, जिसमें न कोई चिन्ता है, न रोग है और न पर के कर्तृत्व का भार ही है। एकदम निराकुल, परम शांत, अत्यन्त निर्भय और निशंक भाव से जीवन जीने की कला ही समाधि है। यह समाधि संवेग के बिना संभव नहीं और संवेग अर्थात् संसार से उदासी सम्यग्दर्शन के बिना संभव नहीं । सम्यग्दर्शन के लिए तत्त्वाभ्यास और भेदविज्ञान अनिवार्य है। जिसे समाधि द्वारा सुखद जीवन जीना आता है, वही व्यक्ति सल्लेखना द्वारा मृत्यु को महोत्सव बना सकता है, वही शान्तिपूर्वक मरण का वरण कर सकता है। समाधि और सल्लेखना को और भी सरल शब्दों में परिभाषित करें तो हम यह कह सकते हैं कि “समाधि समता भाव से सुख-शान्तिपूर्वक 21 समाधिमरण पाठ कविवर सूरचन्द के कुछ चुनिन्दा पद्यों का संकलन (नरेन्द्र छन्द) इस जग वन्दो श्री अरहंत परमगुरु, जो सबको सुखदाई | में दुःख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई ।। भव-भव में तन पुरुषतनों धर, नारी हू तन लीनों । भव-भव में मैं भयो नपुंसक, आतमगुण नाहिं चीनों ।। भव-भव में गति नरकतनी धर, दुःख पाये विधि योगे । भव भव में तिर्यंच योनिधर, पायो दुःख अति भोगे ।। भव भव में जिन पूजन कीनी, दान सुपात्रहिं दीनो । भव भव में मैं समवसरण में, देख्यो जिनगुण भीनो ।। एती वस्तु मिली भव भव में, सम्यक्गुण नहिं पायो । ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातैं जग भरमायो ।। काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरणहिं कीनों । एक बार हूँ सम्यक्युत मैं, निज आतम नहिं चीनों ।। जो निज पर को ज्ञान होय तो, मरण समय दुःख काँई । देह विनासी मैं निजभासी, जोतिस्वरूप सदाई ।। विषयकषायन के वश होकर, देह आपनो जान्यो । कर मिथ्या सरधान हिये विच, आतम नाहिं पिछान्यो ।।
SR No.008376
Book TitleSamadhi aur Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2005
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size100 KB
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