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________________ समाधि और सल्लेखना अथवा जिनालय में रहकर गुरु के समीप मन-वचन-काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके दुग्ध जलपान आदि के सिवाय शेष तीन प्रकार के (खाद्य, स्वाद्य और लेह्य आहार का) त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में सल्लेखना नाम का चौथा शिक्षाव्रत कहा गया - वसुनन्दि श्रावकाचार, गाथा २७१-२७२ प्रश्न - समाधिमरण धारण करने की क्या प्रक्रिया है? उत्तर - अपनी आयु निकट जानकर समाधि साधक समाधिमरण करने का निर्णय लेते हैं। एतदर्थ वे सर्वप्रथम अपने गुरु से पूछते हैं, पश्चात् मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक समस्त श्रावकों एवं मुनिसंघ से क्षमायाचना करते हैं और सबको क्षमा प्रदान करते हैं। तत्पश्चात् दो अथवा तीन मुनियों के साथ उस संघ का त्याग करके अन्य संघ में जाते हैं; क्योंकि यदि उसी संघ में रहेंगे तो पूर्व परिचय के कारण संघ के साधुओं से मोह होना सम्भव है। इसप्रकार वे समाधिधारक योग्य निर्यापक की शरण में पहुँचकर समाधिमरण के लिए निवेदन करते हैं। वे निर्यापक भी उचित परीक्षापूर्वक आत्मा की शुद्धि के लिए साधक के दोषों की आलोचना (समीक्षा) करते हैं। एवं उन दोषों का निराकरण कराते हैं। साधक दोषों को बतलाने में किसी प्रकार की मायाचारी नहीं करते हुए आचार्यदेव द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त को धारण करते हैं। यह सब प्रक्रिया सम्पन्न होने पर आचार्यदेव, उन साधकों को समाधिमरण का स्वरूप बतलाते हुए समाधिमरण में उत्साहित करते हैं। - मूलाचार प्रदीप, गाथा २६४७ से २६६६ प्रश्न - समाधिधारक किस प्रकार का चिन्तवन करके अपने परिणामों को दृढ़ रखते हैं? उत्तर :- साधक चिन्तवन करते हैं कि - दर्शन और ज्ञानरूप उपयोग लक्षणवाला मैं एक हूँ, सदा नित्य हूँ, जन्म-जरा-मृत्यु से रहित समाधि और सल्लेखना हूँ, परद्रव्यों से भिन्न हूँ और अनन्त गुणों का भण्डार हूँ। अन्य दूसरे जितने भी द्रव्य, देह, इन्द्रिय, लक्ष्मी और गृहादि अचेतन पदार्थ हैं तथा स्वजन-परिजन आदि चेतनप्राणी हैं, वे सब मेरे से सर्वथा भिन्न एवं परस्वरूप हैं। ____ मैं सिद्ध हूँ, सिद्धरूप हूँ, गुणों से सिद्ध के समान हूँ, महान हूँ, त्रिलोक के अग्रभाग पर निवास करनेवाला हूँ, अरूप हूँ, असंख्यातप्रदेशी हूँ। मैं शुद्ध हूँ, मैं निःकर्मा हूँ, मैं भवातीत हूँ, संसार को पार कर चुका हूँ, मैं मन-वचन-काय से दूर हूँ, मैं अतीन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों से परे हूँ, मैं क्रिया रहितअर्थात् निष्क्रिय हूँ, मैं अमूर्त हूँ, मैं ज्ञानरूप हूँ, मैं अनन्त दर्शन, अनंत ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख का धारक हूँ, मैं सर्वदर्शी हूँ। ____ मैं परमात्मा हूँ, प्रसिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, स्वचैतन्यात्मक हूँ, मैं परमानन्द का भोक्ता हूँ, मैं सर्वप्रकार के कर्म-बन्धनों से रहित हूँ, अखण्डरूप हूँ, निर्ममत्वरूप हूँ, उदासीन हूँ, ऊर्जस्वी हूँ, तेजस्वी हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ, मैं आत्मज्ञ हूँ, मैं केवलदर्शन और केवलज्ञानरूप दो नेत्रों का धारक हूँ, मैं स्वसंवेदनगम्य हूँ, मैं सम्यग्ज्ञानगम्य हूँ। ____ मैं सनातन हूँ, मैं सिद्धों के अष्ट गुणों का धारक हूँ, मैं निश्चयतः जगज्येष्ठ हूँ, मैं जिन हूँ, परमार्थ से मैं ही स्वयं ध्यान करने के योग्य हूँ। इसप्रकार अपने उत्कृष्ट आत्मस्वरूप की भावना द्वारा अध्यात्मवेत्ता क्षपक स्वात्मध्यान में लीन रहता है। -समाधिमरणोत्साहदीपक, गाथा-१५०-१५१ प्रश्न :- सल्लेखना की भावना जीवनपर्यन्त करना उपयोगी है अथवा मात्र अन्तिम समय में सल्लेखना कार्यकारी है? उत्तर :- मैं मरण काल में अवश्य ही शास्त्रोक्त विधि से समाधिमरण करूँगा - इस प्रकार सदैव समाधि की भावना करके मरणकाल प्राप्त 12
SR No.008376
Book TitleSamadhi aur Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2005
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size100 KB
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