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समाधि और सल्लेखना घटाता है और रागादि को मिटाता है; इसलिए आत्मघात का दोष नहीं
है।
समाधि और सल्लेखना इसीप्रकार सागारधर्मामृत १/१० तथा समाधिमरणोत्साह दीपक १७/१८, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक १७५ आदि में सल्लेखना का स्वरूप एवं आवश्यक्ता का विशद विवेचन है।
प्रश्न :- क्या सल्लेखना आत्माहत्या है?
उत्तर :- सल्लेखना और आत्महत्या में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। इस सम्बन्ध में अत्यन्त युक्तिसंगत शंका-समाधान आचार्य पूज्यपाद प्रस्तुत करते हैं -
"शंका - चूँकि सल्लेखना में अपने अभिप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद का अभाव है। 'प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा हैं', परन्तु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि इसके रागादिक नहीं पाये जाते । राग, द्वेष
और मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है, उसे आत्मघात का दोष प्राप्त होता है, परन्तु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्मघात का दोष प्राप्त नहीं होता।" - सर्वार्थसिद्धि ७/२२
आत्मख्याति के रचयिता आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - मरणेऽवश्यंभाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे ।
रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नाऽत्मघातोऽस्ति ।। अर्थात् मरण अवश्यम्भावी है - ऐसा जानकर कषाय का त्याग करते हुए, राग-द्वेष के बिना ही प्राणत्याग करनेवाले मनुष्य को आत्मघात नहीं हो सकता।
उपर्युक्त श्लोक की टीका करते हुए टोडरमलजी लिखते हैं - यहाँ कोई कहेगा कि संन्यास में तो आत्मघात का दोष आता है?
समाधान - सल्लेखना करनेवाला पुरुष जिस समय अपने मरण को अवश्यम्भावी जानता है, तब संन्यास अङ्गीकार करके कषाय को
आत्मघात का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आ. अमृतचन्द लिखते हैं -
यो हि कषायाऽविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ।।
अर्थात् जो जीव क्रोधादि कषायसंयुक्त होकर श्वास-निरोध करके अर्थात् फाँसी लगाकर, जल में डूबकर, अग्नि में जलकर, विष-भक्षणकर या शस्त्रादि के द्वारा अपने प्राणों का वियोग करता है; उसको सदाकाल अपघात का दोष लगता है। - पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक-१७७१७८
सल्लेखना की विधि बताते हुए आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - स्नेहं वैरं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमना । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियैर्वचनैः ।। आलोच्यसर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् ।
आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।। अर्थात् स्नेह, बैर, परिग्रह को छोड़कर शुद्ध होता हुआ प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों और चाकरों से भी क्षमा करावे और आप भी सबको क्षमा करें । छलकपट रहित होकर, कृत-कारित-अनुमोदना सहित किये हुए समस्त पापों की आचोलना करके मरणपर्यंत उपचरित महाव्रतों को धारण करे । क्रम-क्रम से आहार को छोड़कर दुग्ध-छाछ को बढ़ावे और पीछे दुग्धाभिषेक को छोड़कर गरम जल को बढ़ावे। तत्पश्चात् गरम जलपान का भी त्याग करके और शक्त्यानुसार उपवास करके पश्च नमस्कार मंत्र को मन में धारण करता हुआ शरीर को छोड़े।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक-१२४-१२५ "आचार्य वसुनन्दि लिखते हैं - जो श्रावक, वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में
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