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| शंख देखने का फल वह चक्रवर्ती होगा। सरोवर देखने का फल वह बत्तीस लक्षणों वाला होगा। कलश
का फल निधियों का स्वामी होगा।" | स्वप्नों का फल जानकर रानी अति प्रसन्न हुई, कुछ माह बाद श्रीधर देव के जीव को रानी ने पुत्र के रूप में जन्म दिया, पुत्र का नाम अजितसेन रखा। । दूसरे दिन स्वयंप्रभ नामक तीर्थंकर अशोकवन में आये। राजा ने सपरिवार उनकी पूजा-स्तुति की, धर्मोपदेश सुना और सज्जनों के छोड़ने योग्य राज्य अजितसेन पुत्र को देकर संयम धारण कर लिया तथा स्वयं ने भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। ___अनुरागवश अजितसेन राज्यलक्ष्मी का स्वामी तो बना ही, युवावस्था में ही प्रौढ़ों की भांति भौतिक सुखों में लीन हो गया। पूर्व पुण्योदय से उसे चक्रवर्ती का वैभव भी प्राप्त हो गया। चक्ररत्न प्रगट होते ही दिग्विजय करना एकदम आसान हो गया। इस चक्रवर्ती के राज्यकाल में कोई दुःखी नहीं था। ___ यद्यपि अजितसेन छहखण्ड का अधिपति हो गया था; परन्तु उसे उस राज-वैभव में आसक्ति नहीं थी। यथार्थ में पुण्य का उदय तो वही सार्थक है जो नवीन पुण्यकर्म का बन्ध करनेवाला है। उसके राज्य की सुव्यवस्था और सुशासन से सर्व प्रजा सुखी थी। इसकारण प्रजा उसे बहुत चाहती थी। ___ अपने पराक्रम से जिसने समस्त दिशाओं को प्रभावित कर दिया है - वह अजितसेन इन्द्रादि से भी महान था। उसका धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में और शूरवीरता प्राणियों की रक्षा करने में ही लगती थी। वह सदा पूर्ण स्वतंत्रता के साथ शुभ कार्यों में संलग्न रहता था, इसकारण पुण्य कभी क्षीण नहीं होता था।
इसप्रकार वह तृष्णा रहित होकर गुणों का पोषण करता हुआ सुखी रहता था। उसके वचनों में सत्यता थी, चित्त में दया थी, धार्मिक कार्यों में निर्मलता थी। प्रजा की अपने गुणों के समान रक्षा करता था, फिर | वह राजर्षि क्यों न हो? होगा ही।