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एक दिन वन में श्री पद्म नाम के जिनराज अपनी इच्छा से पधारे । राजा श्रीवर्मा ने यह समाचार सुनकर उस दिशा में सात कदम चलकर नमस्कार किया और बड़ी विनय के साथ उसी समय जिनराज के पास जाकर तीन प्रदक्षिणायें दीं, नमस्कार किया और यथास्थान आसन ग्रहण किया। राजा ने जिनराज से धर्म का स्वरूप पूछा और जिनराज के कहे अनुसार वस्तुतत्त्व का ज्ञान प्राप्त किया । वस्तुस्वरूप समझते ही और संसार की असारता का अनुभव करते ही राजा ने भोगों की तृष्णा त्याग दी और धर्माराधना में अपना मन लगाया। फलस्वरूप उन्होंने सम्यग्दर्शन रूपी मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी पर पग रखा।।
कालान्तर में श्रीवर्मा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को जिनेन्द्रदेव की पूजा करके अपने आप्त जनों के साथ | महल की छत पर बैठा था । वहाँ उल्कापात देखकर उसे वैराग्य हो गया।
दूसरे दिन प्रात: अपने पुत्र को राज्यसत्ता सौंपकर श्री पद्म जिनेन्द्र के पास उसने दीक्षा धारण कर ली और श्रीप्रभ नामक पर्वत पर विधिपूर्वक संन्यास मरण किया। फलस्वरूप प्रथम स्वर्ग में दो सागर की आयुवाला श्रीधर नामक देव हुआ। वह देव अणिमा-महिमा आदि आठ गुणों से युक्त था। सात हाथ ऊँचा उसका शरीर था, पीतलेश्या थी, एकमाह में श्वांस लेता था। दो हजार वर्ष में अमृतमय मानसिक आहार लेता था। काय प्रविचार से संतुष्ट रहता था। इसतरह अपने पुण्यकर्म के परिपाक से प्राप्त हुए भोगों का उपभोग करता हुआ वह सुख से रहता था। ___ धातकीखण्ड की पूर्व दिशा में जो ईष्वाकार पर्वत है, उसके दक्षिण की ओर भरतक्षेत्र में एक अलका नाम का सम्पन्न देश है। उसमें अयोध्या नाम का नगर है। उस नगरी में अजितंजय राजा और अजितसेना रानी थी। एक रात्रि में उसने आठ शुभ स्वप्न देखे। प्रात:काल उठकर उसने अपने पति से उन स्वप्नों का फल पूछा - राजा ने फल बताते हुए कहा - "हे देवी! स्वप्न में हाथी देखने का फल बलवान पुत्र उत्पन्न होना है, बैल देखने का फल वह पुत्र गंभीर होगा, सिंह देखने का फल पुत्र अत्यन्त बलवान होगा। चन्द्रमा देखने का फल वह पुत्र सबको संतुष्ट करेगा। सूर्य देखने का फल वह पुत्र तेजस्वी और प्रतापवान होगा, |
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