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| प्रतिष्ठा करवाई, प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान की स्तुति-पूजा आदि करने लगे, अष्टान्हिका पर्व में लोक| परलोक संबंधी अभ्युदय को देनेवाली अष्टान्हिका पूजा की। । संयोग की बात है कि जब उन्होंने निर्वांछक होकर स्वयं को धर्म कार्यों में लगा लिया तो एक दिन | पुण्ययोग से रानी ने हाथी, सिंह, चन्द्रमा और लक्ष्मी का अभिषेक होते हुए स्वप्न देखा। उसीसमय उसके | गर्भ धारण हुआ तथा गर्भ के सभी लक्षण प्रगट होने लगे। 'स्त्रियों का लज्जा ही प्रशंसनीय आभषूण है' यह सिद्ध करने के लिए ही मानों रानी की समस्त चेष्टाएँ लज्जा से सहित हो गईं। इसप्रकार उसके गर्भ
के चिह्न निकटवर्ती मनुष्यों के लिए कुछ कुतूहल उत्पन्न कर रहे थे। || एक दिन रानी की प्रधानदासी ने हर्ष से राजा के पास जाकर और प्रणाम कर रानी के गर्भवती होने || का समाचार सुनाया। रानी के गर्भ का समाचार सुनकर राजा का हृदय कमल वत प्रफुल्लित हो गया।
जो वंश वृक्ष के वृद्धिंगत करने के लिए चन्द्रोदय के समान है - ऐसे पुत्र की संभावना के समाचारों से राजा प्रसन्नचित्त हो गया। राजा ने उन दासियों के लिए इच्छित पुरस्कार दिया और आनन्दित होता हुआ रानी के महल में गया। वहाँ उसने देखा मानो उसकी रानी रत्नगर्भा पृथ्वी ही हो।
राजा को देखकर रानी खड़ी होने की चेष्टा करने लगी; परन्तु राजा ने कहा - "हे देवी! बैठी रहो! राजा ने उच्चासन पर बैठकर रानी से प्रेमवार्ता की तथा संतानसुख के लिए बधाई दी; फिर धन्यवाद देते हुए रानी के महल से राजभवन चला गया।
तदनन्तर कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर उनके पुण्यकर्म के उदय से सूर्य को उत्पन्न करनेवाली पूर्व दिशा की भांति रानी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस भाग्यवान पुत्र का नाम बन्धुजनों ने श्रीवर्मा रखा। जिसप्रकार दरिद्र को कुबेर का खजाना मिलने से संतोष होता है, उसीप्रकार पुत्र की प्राप्ति से श्रीषेण राजा
और श्रीकान्ता रानी संतुष्ट हुए। पुत्र के तेज के समक्ष सूर्य का तेज भी फीका पड़ता था, चंद्र के समान उसकी कान्ति थी। राजपुत्र श्रीवर्मा द्वितीया के चन्द्र के समान वृद्धिंगत होने लगे। यौवन अवस्था को प्राप्त होने पर राजा श्रीषेण ने पुत्र श्रीवर्मा को राज्य सौंप दिया और स्वयं आत्मकल्याण में तत्पर हो गये।
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