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चन्द्रप्रभ भगवान के पूर्वभवों की चर्चा करते हुए कहा है कि - इस मध्यलोक में एक पुष्कर द्वीप है। उसके बीच में मानुषोत्तर पर्वत है। यह पर्वत चारों ओर से वलय (चूड़ी) के आकार गोल है तथा मनुष्यों ला || के आवागमन का सीमा क्षेत्र है। उसके भीतरी भाग में दो मेरुपर्वत हैं। एक पूर्व मेरु, दूसरा पश्चिम मेरु ।
पूर्व मेरु के पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के तट पर एक सुगन्धि नाम का देश है। जो कि || किला, वन, खाई, खाने और बिना बोये होनेवाले धान्य आदि से सुशोभित है।
उस देश के सभी मनुष्य क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों में विभक्त थे। जैसे तपस्वी सरल परिणामी होते हैं वैसे ही वहाँ के किसान भी सरल परिणामी, भोले-भाले और धार्मिक थे। वे परिश्रमी थे। खेती की | रक्षा के लिए रात्रि जागरण करते थे। जिसप्रकार तपस्वी क्षुधा-तृषा परिषह सहते थे, उसीप्रकार किसान भी भूखे-प्यासे रहकर परिश्रम करते थे।
जिसप्रकार ललाट के बीच में तिलक होता है, उसीप्रकार अनेक शुभ स्थानों से सहित उस देश के मध्य में श्रीपुर नाम का नगर था। उस श्रीपुर में बड़े-बड़े ऊँचे भवन थे। वहाँ के रहनेवाले लोग सजन, सम्यग्दृष्टि,
और व्रती-संयमी थे। उस नगर के विवेकीजन उत्सव के समय मंगल के लिए और शोक के समय शोक दूर करने के लिए जिनेन्द्र भगवान की पूजा किया करते थे।
इन्द्र के समान कान्ति का धारक श्रीषेण नाम का राजा उस श्रीपुर नगर का स्वामी था। उसकी अत्यन्त विनयशील श्रीकान्ता नाम की स्त्री थी। वह सर्वगुण सम्पन्न थी। वह स्त्री अन्य स्त्रियों के लिए आदर्श थी। वह दम्पत्ति - देव दम्पत्ति के समान पापरहित और उत्कृष्ट सुख प्राप्त करनेवाला था; परन्तु संसार में अखण्ड पुण्य किसी के नहीं होता। वे राजा श्रीषेण और रानी श्रीकान्ता देवतुल्य सुख भोगते हुए भी बहुत काल तक सन्तान सुख से वंचित रहे; एतदर्थ उन्होंने औषधि उपचार के उपाय भी किए; परन्तु सफल नहीं हुए। अन्ततोगत्वा उन्होंने पुत्र अभिलाषा से मुख मोड़कर अपने उपयोग को धर्म कार्यों में लगा लिया। उन्होंने रत्नों की जिन प्रतिमाएँ बनवाईं, उन्हें अष्ट प्रातिहार्य और अष्ट मंगल द्रव्यों से सुशोभित किया। उनकी |