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सम्पूर्ण कथन का सारांश यह है कि जो स्वयं दुःखरूप हो वह दया पुण्यरूप तो होती है, पर उस दया | से धर्म नहीं हो सकता । धर्म तो सुखस्वरूप है, वीतरागभावरूप है जबकि दया भाव दुःखरूप है, रागरूप | है । यद्यपि परदया करना भी प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है, पर उसे धर्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । 'दया धर्म का मूल है' इस उक्ति का भी यही अर्थ है कि दयाधर्म नहीं, धर्म का कारण है, धर्म के पहले दया भाव होता ही है ।
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हमें वस्तुतः संसार के सुख दुःखरूप लगे हों, संसार में भटकते-भटकते थकान महसूस होने लगी हो तो परदया के साथ-साथ स्वदया भी करनी ही होगी।
यह स्वदया ही वस्तुत: धर्म का मूल है। यह स्वदया का भाव सबके हृदय में जागृत हो - ऐसी मंगल कामना है।
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भव्य श्रोता को जिज्ञासा जगी प्रभो! दया का स्वरूप तो समझ में आ गया, अब कृपया भक्ष्य क्या है और अभक्ष्य क्या है, इसे भी स्पष्ट कर दीजिए ?
दिव्यध्वनि में समाधान आया - हाँ, हाँ, सुनो ! जिन पदार्थों के खाने से त्रस जीवों का घात होता | हो या बहुत स्थावर जीवों का घात होता हो तथा जो पदार्थ भले पुरुषों के सेवन करने योग्य न हों या नशाकारक अथवा अस्वास्थ्यकर हों, वे सब अभक्ष्य हैं। इन अभक्ष्यों को पाँच भागों में बांटा जाता है -
१. त्रसघात, २. बहुतघात, ३. अनुपसेव्य, ४. नशाकारक, ५. अनिष्ट ।
(१) त्रसघात - जिन पदार्थों के खाने से त्रसजीवों का घात होता हो, उन्हें त्रसघात अभक्ष्य कहते हैं । पंच - उदुम्बर फलों में अनेक त्रस जीव पाये जाते हैं, अतः ये त्रसघात अभक्ष्य हैं, खाने योग्य नहीं हैं।
(२) बहुघात - जिन पदार्थों के खाने से बहुत (अनंत) स्थावर जीवों का घात होता है, उन्हें बहुघात अभक्ष्य कहते हैं । समस्त कन्दमूलों में अनंत स्थावर निगोदिया जीव रहते हैं । इनके खाने से अनंत जीवों का घात होता है, अतः ये खाने योग्य नहीं हैं। जैसे आलू, शकरकन्द, मूली आदि ।
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