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________________ REEFFFFy | धर्मरूप वृक्ष का मूल है। इसका सर्वव्रतों में प्रथम स्थान है। यह सम्पदाओं का धाम है और गुणों का निधान | श || है। अतएव विवेकीजनों को जीवों के प्रति दयाभाव अवश्य रखना चाहिए।" परन्तु लगभग सभी व्यक्ति केवल इस सर्वानुकम्पा को ही दया समझते हैं और उनका ऐसा समझना अकारण भी नहीं है, क्योंकि लोक में तथा शास्त्रों में इसी की बाहुल्यता है। धर्मानुकम्पा व मिश्रानुकम्पा को प्रायः सभी श्रद्धा व भक्ति की भावना ही समझते हैं, पर वह दया का ही एक प्रकार है। जब संयत (मुनि) या संयतासंयत (क्षुल्लक-ऐलक) आदि धर्मात्माओं को किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में देखकर हमारा हृदय दुःखी हो जाता है, तो वह शुभभाव तो स्पष्ट अनुकम्पा है ही, साथ ही उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति के शुभभावों को भी आगम में अनुकम्पा कहा गया है। सर्वानुकम्पा से सामान्य पुण्यबंध होता है और मिश्रानुकम्पा व धर्मानुकम्पा सातिशय (विशेष) पुण्यबंध की कारण है। इसप्रकार ये तीनों ही प्रकार की दया परदया ही हैं, इनसे पुण्यबंध होता है। ___पर ध्यान रहे, इनके सिवाय एक दया और है, जिसे स्वदया कहते हैं। स्वदया अर्थात् अपने दुःख देखकर संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर, इनसे भेदज्ञान करके कांटे की तरह चुभनेवाली मायामिथ्या-निदान त्रिशल्यों का त्याग कर निष्कषाय हो जाना 'स्वदया' है। इस सबमें स्व-अनुकम्पा ही सर्वश्रेष्ठ अनुकम्पा है, क्योंकि पर-अनुकम्पा तो अज्ञानदशा में भी अनंतबार की, पर स्व-अनुकम्पा हमने आज तक नहीं की, अन्यथा आज हम इस दुःखद स्थिति में नहीं होते, क्योंकि स्वदया निर्बन्ध दशा प्रगट करने की कारण है। ___ ध्यान रहे, यह स्व-अनुकम्पा मिथ्यात्व शल्य निकले बिना उत्पन्न ही नहीं होती; क्योंकि मिथ्यात्व से आत्मा में पर-पदार्थों के प्रति इष्ट-अनिष्ट रूप मिथ्या कल्पनायें उत्पन्न होती हैं। मिथ्याकल्पनाओं से रागद्वेषादि भावों से आत्मा कर्मों से बंधता है और कर्मबन्धन से संसार परिभ्रमण होता है। इसप्रकार स्व-अनुकम्पा के अभाव में ही यह जीव अनादि से संसार-सागर में गोते खा रहा है। यदि ||६
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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