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इसप्रकार तीर्थंकर पार्श्वप्रभु के मन में उत्कृष्ट वैराग्य प्रगट हुआ। जिससमय उन्हें ऐसी वैराग्यभावना जाग्रत हुई, उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना की तथा नानाप्रकार से वैराग्य की प्रशंसा करते हुए उनकी स्तुति की। तदनन्तर सुपार्श्वनाथ देवों द्वारा उठाई हुई मनोगति नामक पालकी पर आरूढ़ होकर वन में चले गये और वहाँ ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन शाम को एक हजार राजाओं के साथ संयमी हो गये। उसीसमय उन्हें मन:पर्यय ज्ञान हो गया।
दूसरे दिन सुपार्श्व मुनिराज आहारहेतु सोमखेट नामक नगर में गये । वहाँ उन्हें महेन्द्रदत्त राजा ने पड़गाह कर आहारदान दिया। सुपार्श्व मुनि छद्मस्थ अवस्था में ९ वर्ष तक मौन रहे । बाद में उसी वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर वे शिरीष वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुए।
देवों ने आकर उनका केवलज्ञान कल्याणक मनाया और भगवान सुपार्श्वनाथ के केवलज्ञान की पूजा की। उनके पंचानवे (९५) गणधर थे। दो हजार तीस पूर्वधारी, दो लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस उपाध्याय उनके साथ रहते थे। नौ हजार अवधिज्ञानी मुनि, ग्यारह हजार केवलज्ञानी उनके सहभागी थे। पन्द्रह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक उनके उपासक थे।
नौ हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे। आठ हजार छह सौ वादी उनकी वन्दना करते थे। इसप्रकार सब मिलाकर वे तीनलाख मुनियों के स्वामी थे। तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ और संख्यात तिर्यंच उनकी वंदना करते थे।
इसप्रकार धर्म प्रेमी भव्यात्माओं को धर्मामृत पान कराते हुए समोशरण के साथ वे विहार करते थे।
समोशरण में एक जिज्ञासु के मन में प्रश्न उठा - “उसने अपने प्रश्न को व्यक्त करते हुए कहा - प्रभो! लोग कहते हैं कि 'दया धर्म का मूल है' परन्तु जो दयाधर्म का मूल है उस दया का वास्तविक स्वरूप क्या है ? __हाँ सुनो! वस्तुत: दया दो प्रकार की है - १. स्वदया और २. परदया। लोग परदया को ही दया जानते ॥ हैं, उनकी दृष्टि स्वदया की ओर जाती ही नहीं। परदया से पुण्य होता है और स्वदया से धर्म ।
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