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|| को लज्जित करते थे। जब उनके कुमार काल में पाँच लाख पूर्व बीत गये तब उन्होंने किसी दानी की भांति | श || धन का परहित में सदुपयोग करने के लिए साम्राज्य स्वीकार किया।
यद्यपि कुमार सुपार्श्व के पुण्यप्रताप से इन्द्र ने उनके मनोरंजन की सर्वोत्कृष्ट व्यवस्था थी। सर्व | नाट्यशास्त्रों में निपुण नट, नृत्यकला में निपुण नर्तक-नर्तकियाँ, संगीतकला के सफल कलाकार युवराज || सुपार्श्वप्रभु के मनोरंजन के लिए सदैव उपस्थित रहते थे। तथापि युवराज सुपार्श्वनाथ तो तद्भव मोक्षगामी, जन्म से ही मति-श्रुत-अवधिज्ञान के धारक सम्यग्दृष्टि पुरुष थे, वे इन संयोगों का स्वरूप भली-भांति जानते थे अत: वे इनमें अधिक रचे-पचे नहीं थे। | वे सर्वप्रिय तथा सर्वहितकारी वचन बोलते थे। उनका अतुल्यबल था। उनकी आयु अनपवर्त्य थी। | उनके अशुभकर्म का उदय अत्यन्त मन्द और शुभकर्म का अनुभाग अत्यन्त उत्कृष्ट था। उनके चरणों के
नखों में समस्त इन्द्रों के मुख कमल प्रतिबिम्बित हो रहे थे। इसप्रकार प्रकृष्टज्ञानी भाग्यवान सुपार्श्वनाथ | अगाध सन्तोष सागर में गोते लगाते थे। जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोध-मान-मायालोभ - इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है - ऐसे सभी तीर्थंकरों के अपनी आयु के प्रारम्भिक आठ वर्ष के बाद देशसंयम हो जाता है। इसलिए यद्यपि उनके भोगोपभोग की वस्तुओं की प्रचुरता थी तो भी वे अपनी आत्मा को अपने वश में रखते थे। उनकी वृत्ति नियमित थी तथा असंख्यात गुणी निर्जरा का कारण थी।
जब सुपार्श्वनाथ की आयु बीस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व रह गई, तब किसी समय ऋतु का पर्वत न देखकर वे ऐसा चिन्तवन करने लगे कि “समस्त पदार्थ नश्वर हैं। उनके निर्मल सम्यग्ज्ञान रूप दर्पण में काललब्धि का कारण समस्त राज्यलक्ष्मी छाया की क्रीड़ा के समान नश्वर जान पड़ने लगी।"
वे आगे विचार करते हैं कि - "मैं अबतक यह नहीं जान सका कि यह राज्यलक्ष्मी इसप्रकार शीघ्र नष्ट हो जानेवाली तथा माया से भरी है।" ऐसा विचार कर पार्श्वप्रभु अपने गार्हस्थ जीवन को बारम्बार | धिक्कारते हैं।
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