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BEFORE IFF
“अब मैं सर्वज्ञ निरूपित मोक्षमार्ग को प्राप्त करके समस्त कर्मों को नष्ट कर निर्मल होकर अनन्त सुखों को प्राप्त करूँगा।" | इसप्रकार विचार कर राजा नन्दिषेण ने अपने राज्यपद पर धनपति नामक सज्जनोत्तम पुत्र को बिठाकर
और स्वयं अनेक राजाओं के साथ हर्षपूर्वक अर्हन् नामक मुनि से दीक्षित हो गया। मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। तत्पश्चात् श्रुत के ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर सोलहकारण भावना भाने से उसे तीर्थंकर नामक नामकर्म की प्रकृति का बन्ध हो गया। तथा आयु के अन्त में समाधिमरण पूर्वक समताभाव से देह का त्याग कर मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ उसके शुक्ललेश्या थी। दो हाथ ऊँचा शरीर था। चार सौ पाँच दिन में श्वास लेता था और सत्ताईस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार ग्रहण करता था, भूख की इच्छा होते ही कंठ से अमृत झर जाता था, जिससे क्षुधा शान्त हो जाती थी। उसकी ऋद्धि और अवधिज्ञान द्वारा जानने की मर्यादा सप्तमी पृथ्वी तक थी। सत्ताईस सागर की आयु थी।
इसप्रकार स्वर्ग के सुख भोगकर आयु के अन्त में जब उनका समय पृथ्वी पर अवतीर्ण होने का हुआ तब इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में काशी देश के अन्तर्गत बनारसी नगरी में सुप्रतिष्ठित राजा के घर में रानी पृथ्वीषेण के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से जन्म तक १५ मास तक नियमितरूप से कुबेर ने रत्नों की वर्षा की। माता ने भाद्रपद शुक्लषष्ठी के दिन सोलह स्वप्न देखे। साथ ही मुख में प्रवेश करता हुआ श्वेत हाथी देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में आया। पति से स्वप्नों का फल जानकर रानी पृथ्वीषेण बहुत हर्षित हुई। तदनन्तर ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन बाल तीर्थंकर के रूप में पुनः उनका जन्म हुआ। इन्द्रों ने सुमेरुपर्वत के पर्वत पर उनका जन्माभिषेक महोत्सव मनाया। उनके चरणों की वंदना करते हुए उनका ‘सुपार्श्वनाथ' नामकरण किया।
पद्मप्रभ जिनेन्द्र के बाद नौ हजार करोड़ सागर बीत जाने पर भगवान सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी। उनकी आयु बीस लाख पूर्व की थी। वे अपनी कान्ति से चन्द्रमा |
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