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योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम् ।
किं न नाशयति जीवितेच्छया, अक्षितं झटिति जीवितविषम् ।। जो औषधि की इच्छा से ही मधु खाता है, सो भी तीव्र दुःख को शीघ्र प्राप्त होता है; क्योंकि जीने की इच्छा से खाया हुआ विष क्या शीघ्र ही जीवन का नाश नहीं कर देता ?
माक्षिकं मक्षिकानां हि, मांसासुक पीडनोद्भवम् ।
प्रसिद्धं सर्व लोक स्यादागमेष्वपि सूचितम् ।। मधु की उत्पत्ति मक्खियों के मांस व रक्त आदि के निचोड़ से होती है, यह बात सम्पूर्ण लोक में प्रसिद्ध है तथा शास्त्रों में भी यही बात बतलाई गई है।
इसके अतिरिक्त मधु-मक्खियों का मल-मूत्र और वमन होने से ग्लानि युक्त भी है, क्या कोई व्यक्ति किसी के मुँह का उगला हुआ कौर (ग्रास) खा सकता है ? यदि नहीं तो फिर मधु-मक्खियों के मुँह से उगली हुई मधु कोई कैसे खा सकता है ? ध्यान रहे, मधु में मधु-मक्खियों का मल-मूत्र भी मिला रहता है; क्योंकि उनके छत्ते में पृथक् से मूत्रालय व शौचालय की व्यवस्था नहीं होती।
इसप्रकार युक्ति व आगम से यह सिद्ध है कि मधु के खाने में मांस खाने का दोष लगता है; क्योंकि मधु-मक्खियाँ स्वयं भी त्रसजीव होने से उनका कलेवर भी मांस ही है।
इसके सिवाय एक बात यह भी है जिसप्रकार मांस में सूक्ष्म निगोदिया जीव उत्पन्न होते व मरते रहते हैं, उसीप्रकार मधु में भी सदा जीवोत्पत्ति होती रहती है।
जो मनुष्य भोजन में पड़ी हुई मक्खी को देखकर मुँह के ग्रास को उगल देता है, थूक देता है; वही मनुष्य लाखों मधु-मक्खियों एवं उनके असंख्य अंडों को निर्दयतापूर्वक निचोड़कर निकाले गये मधु को कैसे खा-पी जाता है ?
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