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________________ EE FOR "FF 0 मधु तोड़नेवाले सबसे पहले मधुछत्ते पर प्राणघातक हमला करते हैं, गहरा धुंआ करके मक्खियों को मार भगाते हैं; फिर उनके घर-परिवार को नष्ट करके उनकी जीवनभर की संग्रहीत सम्पत्ति को छीन लेते हैं। काश! कोई हमारे साथ और हमारे घर-परिवार के साथ ऐसा निर्दयतापूर्वक व्यवहार करे तो हम पर क्या बीतेगी ? क्या कभी मधु खानेवालों ने यह कल्पना भी की है ? मधु का उत्पादन तो अतिनिर्दयतापूर्वक होता ही है, वह स्वयं भी अनन्त जीवों का कलेवर है। इसतरह मधु संचय करने में एवं उसके खाने-पीने में जो लाखों जीवों की हिंसा होती है, वह तो प्रत्यक्ष ही है, साथ ही उस मधु में मांस-मदिरा की भांति रसज त्रस जीव भी निरन्तर पैदा होते रहते हैं और मरते रहते हैं, इसकारण मांस-मदिरा की भांति ही मधु भी अत्यन्त हेय है। आगम इसका साक्षी है - "मधु सकलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्माकं भवति लोके। भजति मधुमूढ़घीको, य: संभवतिऽहिंसकोऽत्यन्तम् ।। मधु की एक-एक बूंद मधुमक्खी की हिंसारूप होती है; अत: जो मन्दमति मधु का सेवन करता है, वह अत्यन्त हिंसक है। स्वयमेव विगलितं यो, ग्रहणीयाद् छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा, तदाश्रय प्राणिनां घातात् ।। छल द्वारा मधु के छत्ते से मधु प्राप्त करने में अथवा स्वयमेव चुए हुए मधु को ग्रहण करने से भी हिंसा तो होती ही है; क्योंकि उसके मिश्रित रहनेवाले अनेक क्षुद्र जीवों का घात तो होता ही है। बहुजीव प्रघातोत्थं, बहुजीवोद्भावास्पदम् । असंयम विभीतेन, त्रेधा मध्वपि वर्जयेत् ।। संयम की रक्षा करनेवालों को बहुत जीवों के घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूत | || मधु को मन-वचन-काय से छोड़ देना चाहिए। FFER
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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