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मांसाहार से होनेवाली मानसिक व शारीरिक हानियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मांस का एक अंश मात्र भी भक्षण करने से जीवों के भाव सब ओर से संक्लेशरूप व क्रूर हो जाते हैं। क्रूर व संक्लेश | परिणाम पापबंध के कारण बनते हैं । वह तीव्र पापबंध जीवों को नानाप्रकार के मानसिक व शारीरिक दुःखों का कारण बनता है । फिर उसे उन दुःखों से कोई नहीं बचा सकता। सभी को अपने किए की सजा भुगतनी पु ही पड़ती है। संतकवि श्री तुलसीदासजी भी यही भाव व्यक्त करते कहेंगे हुए
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"कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करे सो तस फल चाखा ।
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अपनी-अपनी करनी का फल तो प्रत्येक प्राणी को भोगना ही पड़ता है, अत: सबको ऐसे निंद्य व हिंस्य कर्म से तो बचना ही चाहिए, जो दुर्गति का कारण हो और जिससे अनंत काल तक दुःख उठाना पड़े।'
यहाँ किसी को यह आशंका हो सकती है कि हिरण, बकरी, गाय, मेढा और मुर्गा आदि प्राणियों के शरीर के समान उड़द, मूंग, गेहूँ, चावल और साग-सब्जी व फलादि भी तो प्राणी के अंग होने से मांस | ही है; अत: यदि अन्न आदि भक्ष्य हैं तो मांस भी भक्ष्य ही होना चाहिए। जीवों के संयोग की अपेक्षा तो सभी समान ही हैं न ? जैसा पशु-पक्षियों के शरीर में जीव का संयोग है, वैसे ही साग-सब्जी व अन्न में भी जीव का संयोग होता है ।
जिनागम में इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि सभी प्रकार का मांस तो जीवों का ही शरीर है, पर सभी जीवों का शरीर मांस नहीं होता ।
जीव दो प्रकार के होते हैं - एक स्थावर और दूसरे त्रस । त्रस जीवों का शरीर मांसमय होता है, दो इन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक सभी त्रसकाय कहे जाते हैं, इन सबका शरीर मांसमय होता है तथा सभी प्रकार के अन्न, फल, शाक आदि और पानी स्थावर जीव हैं, इन सबके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, इन एकेन्द्रियों जीवों का शरीर मांसरहित होता है। इनके खाने से मांस का दोष नहीं
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