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मांस, घास, लकड़ी या पत्थर से नहीं निकलता। वह तो जीव हत्या से ही मिलता है; इसलिए उसे खाने में महान दोष है। जो लोग सदा मांस भक्षण करते हैं, उन्हें राक्षस समझना चाहिए। हिंसक लोग ही पशुपक्षियों की हत्या करते हैं । यदि मांस को अभक्ष्य समझकर सब लोग उसे खाना छोड़ दें तो जीव-जन्तुओं की हत्या अपने आप बन्द हो जाये ।
नियम पालन करनेवाले महर्षियों ने मांस भक्षण के त्याग को धन, यश, आयु तथा स्वर्ग की प्राप्ति का प्रधान साधन बताया है।
हे युधिष्ठिर! पूर्वकाल में मैंने महर्षि मार्कंडेय से मांस भक्षण के जो दोष सुने हैं, उन्हें बताता हूँ। जो मनुष्य जीवित प्राणियों को मारकर अथवा उसके मर जाने पर, उसका मांस खाता है; वह उन | प्राणियों का हत्यारा ही माना जाता है। जो मांस खरीदता है, वह धन से; जो खाता है वह उपयोग से और जो मारनेवाला है; वह शस्त्रप्रहार करके पशुओं की हिंसा करता है। इसप्रकार तीनतरह से प्राणियों की हत्या होती है। जो स्वयं तो मांस नहीं खाता; पर खानेवालों की अनुमोदना करता है, वह भी भावदोष के कारण | मांसभक्षण के पाप का भागी होता है। इसीप्रकार जो मारनेवाले को प्रोत्साहन देता है, उसे भी हिंसा का पाप लगता है।
इसप्रकार विद्वानजन अहिंसारूप परमधर्म की प्रशंसा करते हैं। अहिंसा परमधर्म है, परमतप है और परमसत्य है । अहिंसा से ही धर्म उत्पन्न होता है ।
मांसाहार का दुष्परिणाम बताते हुए वैष्णवधर्म के ही दूसरे ग्रन्थ 'विष्णुपुराण' में कहा जायेगा कि
" यावन्ति पशु रोमाणि, पशु मात्रेषु भारत: । तावद् वर्ष सहस्त्राणि, पंचयते पशु घातकः ।।
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हे राजन्! जो मनुष्य जिस पशु को मारता है, वह उस मरे हुए पशु के शरीर में जितने रोम हैं; उतने ही हजार वर्षपर्यन्त नरक में दुःख भोगता है । "
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