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“यदि खादको न स्यात्, न तदा घातको भवेत् ।
घातकः खादकार्थाय, तद् घातयति वै नरः ।। यदि कोई मांस खानेवाला ही न हो, तो कोई भी किसी बकरे, मछली, मुर्गे आदि को न मारे । मांस खानेवालों के लिए ही तो धीवर, कसाई आदि पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं को मारते हैं।"
इसकारण मांस खानेवाला जीव हिंसा करनेवाले से भी अधिक पाप के फल का भागी है। यदि कोई मांस खायेगा ही नहीं तो बिना कारण कोई जीवों को क्यों मारेगा ?
महाभारत के ही अनुशासनपर्व में इस संबंध में धर्मराज युधिष्ठिर और भीष्मपितामह का एक अन्यन्त | प्रभावोत्पादक संवाद द्रष्टव्य है -
युधिष्ठर - हे पितामह ! आपने बहुत बार कहा है कि अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। मैं जानता हूँ कि मांस खाने से क्या-क्या हानि होती है ?
भीष्म - हे युधिष्ठिर ! जो मनुष्य सुन्दर रूप, सुडौल शरीर, उत्तमबुद्धि, सत्व बल और स्मरण शक्ति प्राप्त || करना चाहता हो, उसे हिंसा का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। इस विषय में ऋषियों ने जो सिद्धान्त निश्चित किये हैं या करेंगे। वे ज्ञातव्य हैं।
स्वयंभुव मनु का वचन होगा कि जो मनुष्य न मांस खाता है, न पशु-हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है; वह सारे प्राणियों का मित्र है।
नारद कहेंगे कि जो मनुष्य दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उसे अवश्य दुःख उठाना पड़ता है।
वृहस्पति का कथन होगा कि जो मनुष्य मधु और मांस त्याग देता है, उसे दान, यज्ञ और तप का फल मिलता है।
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