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________________ || का सदैव के लिए त्याग करना चाहिए। मद्य न केवल मादक है, हिंसामूलक भी है और आत्मा का पतन || करनेवाली भी है। शराब के पीने से उसमें उत्पन्न हुए जीवों के समूह तत्काल मर जाते हैं तथा काम, क्रोध, भय आदि पाप परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं। मद्यं मोहयति मनो, मोहित चित्तस्तु विस्मृति धर्मम्। विस्मृत धर्म जीवो, हिंसामविशंकमाचरति ।।२।। - आचार्य अमृतचन्द्र मद्य मन को मोहित करती है, मोहित मनवाला धर्म को भूल जाता है तथा धर्म को भूला हुआ व्यक्ति निडर व निशंक होकर हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है। इसतरह मद्य के सेवन में कोई एक दो ही दोष हों - ऐसी बात नहीं है, यह तो दोषों का समुद्र है, हिंसा का आयतन है। मद्य में उत्पन्न होनेवाले रसज जीव सदा ही उत्पन्न होते रहते हैं और मरते रहते हैं। मद्य की एक-एक बूंद में मद्य के ही रूप-रस के धारक अनंतजीव होते हैं। मद्य की एक बूंद में उत्पन्न होनेवाले जीव यदि संचार करें, फैल जावें तो समस्त तीन लोकरूप संसार को पूर देंगे - इसमें जरा भी संदेह नहीं है। ऐसी मद्य को पीने से मद्य के सभी जीव तत्काल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसतरह मद्यपान करने से जो हिंसा होती है, उसके फल में उसे नियम से नीचगति ही प्राप्त होती है। यदि स्वयं को दुर्गति के दुःखों में नहीं डालना हो तो मद्य को पीना तो दूर, उसे छूना भी नहीं चाहिए। मद्य का व्यसन ऐसा दुर्व्यसन है कि जो इसे एकबार पकड़ लेता है, फिर यह उसे जीवनभर के लिए जकड़ लेता है। इससे घर-परिवार तो बिगड़ता ही है, कई पीढ़ियों तक इसका असर रहता है। जो स्वयं मद्य पीता हो, वह अपने पुत्र-पौत्रों को किस मुँह से मना कर सकता है। फिर उसकी गति सांप-छछुन्दर जैसी हो जाती है। गले में अड़े छुछुन्दर को सांप न निगल पाता है, न उगल पाता है, निगलता है तो पेट फटता है, उगलता है तो अंधा हो जाता है। यही स्थिति शराबी की होती है, पीना छोड़ भी नहीं पाता और ढंग || से पी भी नहीं सकता, बस शेष जीवन रोते-रोते पश्चाताप करते-करते बीतता है। FFER
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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