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भले ही अबतक जैनकुल में परम्परागत कोई मांस न खाता-पीता हो; फिर भी उसके खतरे से सावधान | करने हेतु भक्ष्य - अभक्ष्य खाद्य-अखाद्य पेय-अपेय की चर्चा तो सदैव अविरलरूप से चलती ही रहना चाहिए। चर्चा से संपूर्ण वातावरण प्रभावित होता है। जो दुर्भाग्यवश इन दुर्व्यसनों में फंस गये हैं, उन्हें उससे उबरने का मार्ग मिल जाता है और जो अबतक बचे हैं, वे भविष्य के लिए सुरक्षित हो जाते हैं। उनकी आगामी पीढ़ियाँ भी इससे बची रहती हैं। इसतरह इन उपदेशों और सामूहिकरूप से किए जा रहे प्रचारप्रसार की उपयोगिता असंदिग्ध है और आगे भी रहेगी।
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पहले जमाने में भी जैनों में मद्य-मांस-मधु का सेवन नहीं था, फिर भी जैन वाङ्गमय में चरणानुयोग का ऐसा कोई शास्त्र नहीं है, जिसमें श्रावक के लिए आठ मूलगुणों के धारण करने व सात व्यसनों के त्याग का उपदेश न हो ।
पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिक सभ्यता आनेवाली दौड़ में पंचसितारा ( फाइव स्टार) होटलों के प्रताप से धनिक नवयुवकों में तो मांस के सेवन की शुरूआत होनी ही है। ऐसी स्थिति में उन्हें मार्गदर्शन | देने की एवं ऐसा वातावरण बनाने की महती आवश्यकता है और भविष्य में भी रहेगी ।
जो व्यक्ति इन अखाद्य-भोजन और अपेय-पान को हृदय से बुरा मानते हैं, वे तो इन्हें खाते-पीते हुए भी समाज और परिवार से मुँह छिपाते हैं, शर्म महसूस करते हैं, खेद प्रकट करते हैं, वे स्वयं अपराधबोध अनुभव करते हैं; अत: उन्हें तो फिर भी सुलटने के अवसर हैं। पर जो लोग इसे सभ्यता और बड़प्पन की वस्तु मान बैठे हैं या आगे ऐसा ही मानेंगे। इसे सभ्यता, बड़े और पढ़े-लिखे होने का मापदंड समझ बैठेंगे। | उनकी स्थिति चिंतनीय रहेगी। ऐसे लोगों को मद्य-मांसादि के सेवन से होनेवाली हानियों का यथार्थज्ञान हो तथा उनके हृदय में करुणा की भावना जगे, उनमें मानवीय गुणों का विकास हो, वे सदाचारी बने; एतदर्थ भी इसकी सतत् चर्चा आवश्यक रहेगी, अनिवार्य रहेगी।
भगवान महावीर स्वामी के २ हजार वर्ष बाद से ही उल्टी गंगा बहेगी। जहाँ पाश्चात्य देशों में मद्य| मांस का बाहुल्य रहेगा, वे तो दिनों-दिन शाकाहार की ओर बढ़ेंगे और भारत, जो ऋषियों-मुनियों का
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