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जगह प्रकरण के अनुसार अलग-अलग कथन होगा। एक जगह मद्य के त्याग को गौण किया जायेगा और दूसरी जगह मधु के त्याग को । इसी से स्पष्ट है कि उन्हें मद्य व मधु दोनों का ही त्याग इष्ट है।
प्रश्न - जिनागम में मूलगुणों का उपदेश त्रिकाल आवश्यक क्यों है ?
उत्तर - देखो, जिस पात्रता के बिना धर्म का प्रारंभ ही संभव न हो, वह पात्रता तो आत्मकल्याण चाहने वालों को प्राप्त करना ही होगी। उसमें किसी भी काल में छूट नहीं मिल सकती, अभी तो तीर्थंकर का प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त है। विक्रम की दूसरी सदी के इतिहास में विभिन्न नामों से लगभग चालीस श्रावकाचार उपलब्ध होंगे, जो प्रकाशित भी होंगे, उनमें श्रावकों के आचरण का विस्तृत विवेचन होगा। प्राय: सभी में मद्य-मांस-मधु एवं पंच- उदुम्बर फलों के त्याग पर ही विशेष बल दिया जायेगा । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि कहीं / कभी / कोई जैन श्रावकों का वर्गविशेष मद्य-मांस-मधु एवं पंच उदुम्बर फलों का सेवन करता होगा? यह तो जैनों की परम्परागत - सनातन चली आयी कुल की मर्यादा है कि किसी भी जैनकुल र्द्ध में कभी भी मद्य - मांस-मधु एवं पंच - उदुम्बर फलों का सेवन नहीं होता; फिर भी यह जो अष्ट मूलगुण धारण करने-कराने का उपदेश दिया गया है, उसका मूल कारण यह है कि परम्परागत चली आई वह सुरीति त | सदैव अखण्डितरूप से चलती रहे । भूल से भी कभी कोई इस मर्यादा का उल्लंघन न करे । इस भावना से ही इनका प्रतिपादन होता रहा है और होते रहना चाहिए ।
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आजतक जो जैनों में मद्य मांस-मधु व अभक्ष्य भक्षण नहीं है, वह शास्त्रों के इन्हीं उपदेशों का सुपरिणाम है। यदि यह उपदेश इतने सशक्तरूप में जिनवाणी में न होता तो निश्चित ही जैनसमाज में इन दुर्व्यसनों का कभी न कभी, कहीं न कहीं प्रवेश अवश्य हो गया होता ।
अबतक जिसतरह बचे हैं, भविष्य में भी इसीतरह इन दुर्व्यसनों और हिंसक प्रवृत्तियों से समाज को बचाये रखना है; एतदर्थ आज भी सतत् सावधान रहने की आवश्यकता है। अन्यथा इस भौतिक और भोगप्रधान युग में, जबकि सब ओर दुर्व्यसनों का बोलबाला है, जैन नवयुवकों को इनसे अछूता रख पाना असंभव नहीं तो कठिन तो हो ही जायेगा ।
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