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के उदय से प्राप्त उसने चिरकाल तक साम्राज्य का सफलतापूर्वक संचालन करके सुख का उपभोग किया। | एक दिन वह विचार करने लगा कि “यह संसार का सुख सचमुच क्षणभंगुर है। अबतक इस राज्य को न जाने कितने राजा भोग चुके हैं। पैदा हुए और यों ही खाया-खेला और मर गये। मैं इस उच्छिष्ट (जूठन) का उपभोग कर रहा हूँ। एक दिन मुझे भी यह राज्य छोड़ना ही होगा। क्यों न मैं ही इसका त्याग कर आत्मा की साधना, परमात्मा की आराधना करके इन पुण्य-पाप कर्मों को तिलाञ्जलि देकर अन्य तीर्थंकरों की तरह अजर-अमर पद प्राप्त करूँ।"
यह सोचकर उसने अपने पुत्र सुमित्र को राज्य सौंप दिया और स्वयं वन में जाकर पिहितास्रव जिनेन्द्र को अपना गुरु बनाकर उनसे जिन दीक्षा ले ली। ग्यारह अंगों में विभाजित जिनश्रुत शास्त्रों का अध्ययन करते हुए और अपने समान विश्व के सब जीवों के भले की तीव्र भावना से अर्थात् विश्वकल्याण की भावना से तीर्थंकर कर्मप्रकृति का बंध किया। आयु के अन्त में समाधिमरण पूर्वक देह से ममत्व त्यागकर मरण किया। फलस्वरूप अत्यन्त रमणीय अर्द्ध ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र हुए। वहाँ इकतीस सागर की आयु थी। दो हाथ ऊँचा शरीर, शुक्ल लेश्या थी, वह वहाँ चार सौ पैंसठ दिन में श्वासोच्छ्वास लेता था। इकतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार का विकल्प आते ही कंठ से अमृत झर जाता है और भूख संतृप्ति हो जाती हैं। अपने तेज, बल और अवधिज्ञान से सातवें नरक तक को प्रभावित कर सकता था, जान सकता था।
आयु के अन्त में जब उसका यही मध्यलोक में अवतरित होने का कुछ ही समय शेष रहा तो इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्रीय राजा के यहाँ सुसीमा नामक रानी के उदर में आने के ६ माह पूर्व से जन्म तक १५ माह इन्द्र की आज्ञा से धन कुबेर ने रत्नों की वर्षा की।
माघ कृष्णा षष्ठी के दिन प्रात:काल रानी सुसीमा ने हाथी आदि के सोलह स्वप्न देखें तथा मुख में ॥ प्रवेश करता हुआ एक हाथी भी स्वप्न में देखा । प्रात: पति से स्वप्नों का फल जानकर हर्षित हुई। कार्तिक ॥५
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