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महामोह के घने तिमिर को, सम्यक् सूर्य भगाता है। ज्ञान द्वीप जगमग ज्योति से, मुक्तिमार्ग मिल जाता है।। मोह नींद में सोये जग को, दिनकर दिव्य जगाता है।
पद्मप्रभ की शरणागत से, भवबन्धन कट जाता है। तीर्थंकर पद्मप्रभ के पूर्वभव का परिचय कराते हुए गणधर आचार्य उत्तरपुराण में कहते हैं कि धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीतानदी के तट पर एक वत्स देश है। उस देश के सुसीमा नगर में महाराज अपराजित राज्य करते थे। यथा नाम तथा गुण सम्पन्न राजा अपराजित को कोई पराजित नहीं कर सका था। उन्होंने ही अंतरंग एवं बहिरंग सभी शत्रुओं को जीत लिया था।
उसके सत्यधर्म के प्रभाव से सभी ऋतुयें उसके अनुकूल थीं। अतिवृष्टि-अनावृष्टि के कारण कभी | अकाल नहीं पड़ा था। इसकारण कृषक जन आदि सभी सुखी थे। उसकी दान की प्रवृत्ति के कारण दारिद्रय शब्द आकाश कुसुमवत् अस्तित्वविहीन था। राजा यद्यपि रूप, गुणरूप अंतरंग सम्पत्ति आदि से सम्पन्न था; किन्तु उसने इस कथन को झूठा सिद्ध कर दिया था कि “पैसे से पाप और बुराईयाँ पनपती हैं, पैसा बुराई की जड़ है।" उसने प्राप्त पैसे (धन) का जनकल्याण में उपयोग कर पुण्यार्जन तो किया ही, जनता का हृदय भी जीत लिया था।
कुटिल, दुष्ट, चोर, लम्पट आदि शब्द केवल शब्दकोष में ही मिलते थे। उसके प्रभाव से वहाँ के व्यक्तियों में ऐसे कोई दोष नहीं टिक सके थे।
वह राजा संधि और विग्रह आदि सभी नीतियों में निपुण था। इसप्रकार भले कार्यों में उपार्जित पुण्यकर्म |
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