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५३॥ आयु के अन्त में समाधिमरण कर जब राजा रतिषेण अहमिन्द्र हुआ तब इस जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र
की अयोध्या नगरी में मेघरथ राजा राज्य करता था। वह भी भगवान ऋषभदेव का वंशज था। वह भी अजातशत्रु था, प्रशंसनीय था। उसकी पट्टरानी मंगला थी। वह पन्द्रह माह तक धन कुबेर द्वारा की गई रत्नवृष्टि आदि से सम्मानित थी। उसने श्रावण शुक्ल द्वितीया के दिन मघा नक्षत्र में हाथी आदि सोलह | स्वप्न देखे तथा अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। उसीसमय वह अहमिन्द्र रानी मंगला के | गर्भ में अवतरित हुआ।
अपने पति से स्वप्नों का फल जानकर रानी बहुत हर्षित हुई। तदनन्तर नौंवे माह में चैत्र माह के | शुक्लपक्ष की एकादशी के दिन तीन ज्ञान के धारक बाल तीर्थंकर का जन्म हुआ। सौधर्म आदि इन्द्र तीर्थंकर बालक को सुमेरु पर्वत ले गये। वहाँ जन्माभिषेक महोत्सव मनाया गया। बाल तीर्थंकर का नाम सुमतिनाथ रखा। तीर्थंकर बालक सुमतिनाथ और अभिनन्दननाथ के बीच का अन्तराल काल नौ लाख करोड़ सागर था। भगवान सुमतिनाथ की आयु चालीस पूर्व थी। तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति थी। बहुत | कहने से क्या! उनके एक-एक अंग की शोभा अद्वितीय थी, अकथनीय थी; वे सर्वांग सुन्दर थे। सबप्रकार के लौकिक सुख रहते हुए भी उन्हें संसार में सुख दिखाई नहीं दिया। अत: सुमतिनाथ संसार से विरक्त हो गये। उन्होंने विचार किया कि “अल्पसुख की इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान मानव इस विषय रूप क्षणिक एवं आदि-मध्य-अन्त में आकुलता उत्पन्न करनेवाले सुख में लम्पट क्यों हो रहे हैं ?
यदि ये संसारी प्राणी कांटे में लिपटे आटे के लोभ में कांटे से अपना कंठ छिदाने वाली मछली के समान आचरण न करें तो इन्हें विषयरूपी कांटे में फंसकर अपने प्राणों को नहीं खोना पड़ेंगे। जो अपने स्वभाव को समझने में चतुर नहीं है - ऐसे मूर्ख प्राणी भले ही अहितकारी कार्यों में लीन रहें; परन्तु मैं तो तीन ज्ञान से सहित हूँ; फिर भी अहितकारी कार्यों में लीन कैसे हो गया ?
जबतक यथेष्ट वैराग्य नहीं होता और यथेष्ट सम्यग्ज्ञान नहीं होता तबतक आत्मा के स्वरूप में स्थिरता | | कैसे हो सकती है ? और जिसके स्वरूप में स्थिरता नहीं, उसके सुख कैसे हो सकता है ?"