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इन्द्रियों के विषय में अनुराग रखनेवाले मनुष्यों को जो मानसिक तृप्ति होती है, उनके मनोरथ पूर्ण होते || हैं, उसे काम कहते हैं। वह काम भी रतिषेण को दुर्लभ नहीं था; क्योंकि समस्तप्रकार की सम्पत्ति उसे उसके || पुण्योदय से सहज उपलब्ध थी, जिससे उसके मनोरथ पूर्ण होते थे। | वह राजा धन का अर्जन, रक्षण, वर्धन और सत् कार्यों में व्यय - इन चारों उपायों से धन का संचय | करता था और आगम के अनुसार अर्हन्त भगवान को ही अपना आराध्यदेव मानता था। इसप्रकार अर्थ
और धर्म को वह काम की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण मानता था। काम की अपेक्षा वह धर्म पुरुषार्थ को अधिक उपयोगी, आवश्यक और हितकर मानता था।
इसप्रकार सहजभाव से धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ पूर्वक पृथ्वी का पालन करते हुए एक दिन रतिषण को विचार आया कि इस दुःखद संसार से जीव का उद्धार होने का क्या उपाय है ? अर्थ और काम पुरुषार्थ तो संसार के ही कारण हैं। जिस व्यवहार धर्म में भी कर्मबंध की संभावना है, उससे भी आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता। एकमात्र वीतरागता का वर्द्धक एक मुनिधर्म ही जीव को उत्तम सुख प्राप्त करा सकता है | - ऐसा विचार कर राजा रतिषेण ने राज्य का भार अपने अतिरथ नामक पुत्र को सौंपकर तप धारण कर लिया। शरीर से ममत्व त्यागकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। उसने दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया। यह तो स्वाभाविक बात है कि जिससे अभीष्ट पदार्थ की सिद्धि होती है, उस काम को कौन बुद्धिमान पुरुष नहीं करना चाहेगा। बुद्धिमान व्यक्ति अभीष्ट फलदायक कार्य करने का उद्यम करते ही हैं। उसने अन्त समय में संन्यास मरण कर तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु का बन्ध किया तथा वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
वहाँ उसका एक हाथ ऊँचा शरीर था। सोलह माह व पन्द्रह दिन में एक बार श्वांस लेता था। तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार ग्रहण करता था। शुक्ल लेश्या का धारक था। अपने तेज से लोक नाड़ी को प्रभावित करता था। उसके अवधिज्ञान की सीमा सम्पूर्ण लोकनाड़ी थी। उतनी ही दूर तक की विक्रिया कर लेता था। वह प्रवीचार रहित होकर भी संसार में सर्वाधिक सुखी था।