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इसका समाधान यह है कि भाई! छठवीं प्रतिमा में तो रात्रिभोजन त्याग पूर्णरूप से होता है और यहाँ मूलगुणों के प्रकरण में रात्रिभोजन का त्याग अतिचार सहित ही होता है, इसमें अतिचारों का त्याग शामिल नहीं है । और छठवीं प्रतिमा में जो रात्रिभोजन का त्याग स्थूलरूप से है वह अतिचार रहित है, मूलगुणों में तो रात्रि में केवल अन्नादिक स्थूल भोजनों का त्याग है, इसमें सुपाड़ी, लोंग, इलायची, जल तथा औषधि आदि का त्याग नहीं है। जबकि छठवीं प्रतिमा में पानी, लोंग, सुपारी, इलायची, औषधि आदि समस्त पदार्थों का त्याग बतलाया है । इसलिए छठवीं प्रतिमाधारी प्राणान्तक प्रसंग आने पर भी जल तक ग्रहण नहीं करता, औषधि आदि लेने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।
प्रश्न - दर्शनप्रतिमाधारी के मूलगुणों के सिवाय अन्य कोई व्रत नहीं होता । वह सम्पूर्णत: अव्रती है, अत: वह तो रात्रि में अन्नादिक भोजन कर सकता है, अव्रती होने से वह अभी रात्रिभोजनत्याग करने में असमर्थ है। वह तो अभी केवल पाक्षिक श्रावक है, वह तो व्रतादि धारण करने का केवल पक्ष रखता है । इसप्रकार भी उसे रात्रि में आहार करने का प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। आगम अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि न तो स हिंसा से विरक्त है और न स्थावर हिंसा से । अतः वह रात्रिभोजन भी क्यों छोड़े ?
उत्तर - एक बात तो यह है कि रात्रि भोजन का त्याग न करने से उसका पाक्षिकपना भी सिद्ध नहीं होता; क्योंकि उसको तो व्रतों के धारण करने की भावना भी सिद्ध नहीं होती ।
दूसरे रात्रिभोजन का त्याग करना तो पाक्षिक श्रावक का कुलाचार है। इसके त्याग बिना तो वह पाक्षिक श्रावक भी नहीं हो सकता। जैन होने के नाते उसे अन्नाहार का त्याग करना तो अनिवार्य ही है। इसके बिना जैनपना कैसे ?
यह बात जगत जाहिर है कि रात्रि में दीपक बिजली के सहारे पतंगा आदि अनेक त्रस जीवों का समुदाय आ जाता है, जो जरा-सा हवा का झकोरा लगने मात्र से अपने सामने देखते-देखते मर जाता है तथा उनका | कलेवर उड़-उड़कर भोजन में मिल जाता है। कुछ जीव तो जीवित ही भोजन में पड़कर मर जाते हैं ।
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