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एकबार पकड़ने पर ये पकड़नेवाले को ऐसा जकड़ते हैं कि जीते जी छूटना संभव नहीं रहता। बस यही इनका | व्यसनपना है। | प्रश्न - चोरी और परस्त्री रमन को जब पापों में कह दिया तो उन्हें पुनः व्यसनों में क्यों रखा ? दोनों || में से एक ही जगह सम्मिलित करना चाहिए न ? पाप व व्यसन में ऐसा अन्तर ही क्या है ?
उत्तर - इन पापों को करने की जब ऐसी आदत पड़े जावे कि राजदण्ड, लोकनिन्दा, व सामाजिक बहिष्कार की स्थिति आ जाने पर भी न छोड़े जा सकें, तब वे पाप व्यसन बन जाते हैं और जो पापकार्य
अज्ञानदशा में हो जाने पर भी माता-पिता गुरुजन के उपदेश से या इहभव-परभव के भय से छूट जाते | हैं, वे पाप की सीमा में ही रहते हैं।
यद्यपि इन व्यसनों का नियमपूर्वक त्याग तो सम्यग्दर्शन होने पर पाक्षिक अवस्था में ही होता है; परन्तु | ये इतने हानिकारक हैं, ग्लानिरूप हैं एवं दुःखद व लोकनिंद्य हैं कि सामान्य श्रावक भी इनका सेवन नहीं करते। अत: किसी को भी इनके चक्कर में नहीं आना चाहिए।
इनमें आसक्त पुरुषों को सम्यग्दर्शन होना तो दूर रहा, किन्तु धर्मरुचि और धर्मात्माओं का समागम होना भी दुःसाध्य हो जाता है। ये सातों व्यसन वर्तमान जीवन को तो नष्ट-भ्रष्ट करते ही हैं, अत्यन्त संक्लेश परिणामों के कारण होने से मरणोपरान्त नरक में जाने के कारण भी बनते हैं; अत: इनसे सदा बचे रहना चाहिए।
प्रभो ! ये सब तो व्यवहार व्यसन हैं, ये तो त्याज्य हैं ही; परन्तु इनके अतिरिक्त और व्यसन क्या है और क्या वे भी त्याज्य हैं ? कृपया उन्हें बताकर अनुग्रहीत कीजिए। ___हाँ सुनो! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया, इसका उत्तर आगे लिखे जानेवाले नाटक समयसार में बनारसीदास के शब्दों में बहुत अच्छा दिया जायेगा, जो निम्नप्रकार होगा -
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