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को आत्मकल्याण से विमुख कर देवे, वह व्यसन है तथा जिस कुशील आचरण, अभक्ष्य-भक्षण और | हिंसकरूप पाप-प्रवृत्ति को बारम्बार किए बिना चैन न पड़े, उन बुरी आदतों को व्यसन कहते हैं।
मूलाचार ग्रन्थ में व्यसन की व्याख्या करते हुए लिखा है कि - "जो महादुःख को उत्पन्न करे, अति विकलता उपजावे उन आदतों को व्यसन कहते हैं।"
स्याद्वादमंजरी में कहा है कि "जिसके होने पर उचित-अनुचित के विचार से रहित प्रवृत्ति हो, वह व्यसन कहलाता है।"
वसुनन्दि श्रावकाचार में इन सातों व्यसनों को दुर्गति गमन का कारणभूत पाप कहा है।
लाटी संहिताकार के १२१ वें श्लोक में भी कहते हैं - "बुद्धिमान जनों को इन महापापरूप सातों व्यसनों का त्याग अवश्य करना चाहिए।" जिनका उल्लेख आगम में इसप्रकार है - १. जुआ खेलना २. मांस खाना ३. मदिरापान करना, ४. वेश्या सेवन करना ५. शिकार खेलना ६. चोरी करना ७. परस्त्री सेवन करना - ये सात व्यसन हैं। कहा भी है -
जुआ खेलन मांस मद, वेश्या व्यसन शिकार।
चोरी पर रमणी रमण, सातों व्यसन निवार ।। ये सातों व्यसन दुःखदायक, लोकनिंद्य, पाप की जड़ एवं दुर्गति में पहुँचानेवाले हैं।
जुआ खेलने से महाराज युधिष्ठिर, मांसभक्षण में बक नामक राजा, मद्यपान करने से यदुवंशीय राजकुमार, वेश्यासंगम से चारुदत्त, शिकार खेलने से ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, चोरी करने से शिवभूति और परस्त्री की अभिलाषा से रावण जैसे पुरुष भी विनष्ट हो गये। जब एक-एक व्यसन के कारण ही इन पुराण पुरुषों ने असा कष्ट सहे और दुर्गति प्राप्त की तो जो सातों व्यसनों में लिप्त हों, उनकी दुर्दशा का तो कहना ही क्या है ? अत: सातों व्यसन त्याज्य हैं। ___व्यसनों में उलझना तो सहज है, पर एकबार उलझने के बाद सुलझना महादुर्लभ हो जाता है, इनको ||३
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