SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ GREEFFFFy ॥ मेरुषेणा आदि तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, उनके चरणयुगल की पूजा || करते थे। पाँच लाख श्राविकायें, उनकी स्तुति करती थीं, असंख्यात देव-देवियों के द्वारा वे स्तुत्य थे। संख्यात तिर्यंच भी उनकी दिव्यवाणी का लाभ लेते थे। फिर भी वीतरागी प्रभु अपने मान-सम्मान से अप्रभावित रहकर भव्यजीवों को वीतरागभाव से दिव्यसंदेश देते थे। तीर्थंकर के उक्त वर्णन से पाठकों को यह संदेश मिलता है कि कोई कितना भी बड़ा हो जाय; फिर | भी उसको अभिमान नहीं होना चाहिए। इसप्रकार भव्यजीवों की बारह सभाओं के नायक भगवान अभिनन्दननाथ ने धर्मवृष्टि करते हुए || आर्यखण्ड की वसुधा पर दूर-दूर तक विहार किया। इच्छा के बिना ही विहार करते हुए वे सम्मेदशिखर | पर पहुँचे । समोशरण के विहार के काल में तीर्थंकर भगवान अभिनन्दननाथ की प्रतिदिन दिन में तीन बार | दो-दो घड़ी दिव्यध्वनि का लाभ सभी भव्य श्रोता ले रहे थे। | एक श्रोता के मन में यह प्रश्न उठा कि व्यसनों के त्याग करने की बात तो बहुत होती है; पर व्यसन तो अच्छे-बुरे सब तरह के होते हैं। किसी को शास्त्र सुनने का, किसी को शास्त्र पढ़ने का भी ऐसा व्यसन होता है कि जबतक वे घंटे-दो घंटे स्वाध्याय और चर्चा न कर कर लें खाना नहीं भाता। किसी-किसी को पूजा-भक्ति का ऐसा व्यसन होता है कि जबतक वे पूजा-पाठ न कर लें तबतक खाना तो दूर पानी भी नहीं पीते । क्या वे व्यसन (आदतें) भी त्याज्य हैं। शास्त्रों में जो सात व्यसनों के त्याग की चर्चा है, उनका स्वरूप क्या है ? वे कितने हैं और श्रावक की किस भूमिका में त्याज्य हैं ? इस विषय पर बहुत मतभेद चलते हैं, कृपया स्पष्ट करके अनुग्रहीत कीजिए। वैसे तो आदत को व्यसन कहते हैं, अत: किसी भी भली-बुरी आदत को व्यसन कहा जा सकता है, कहा भी जाता है; पर आगम में उल्लिखित सप्त व्यसनों के संदर्भ में यह बात नहीं है। आगम में तो सप्तव्यसनों को परिभाषित करते हुए स्पष्ट लिखा है कि 'व्यस्यति प्रत्यावर्तयति पुरुषान् श्रेयसः इति व्यसनम्' जो मनुष्य ES NEF ३
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy