________________ EFFFF 0 384 उपसंहार | प्रस्तुत सम्पूर्ण ग्रंथ में 61 शलाका पुरुषों के भव-भवान्तरों के अध्ययन से यह स्पष्ट समझ में आता है कि जगत में जितने जीव हैं, उनकी होनहार के अनुरूप उतने ही प्रकार की उनकी पुण्य-पापरूप चित्रविचित्र परिणतियाँ हैं। अज्ञानदशा में हुई अपनी-अपनी परिणति का फल तो सभी को भोगना ही पड़ता | है। तीर्थंकर होनेवाले जीवों ने भी अज्ञानदशा में अपने-अपने पुण्य-पाप के फल में नरक, निगोद की पर्यायें | प्राप्त की और अनन्तकालतक असह्य अनन्त दुःख सहन किए। उनके विविध चरित्र हमें यह सीख देते हैं कि यदि संसार में जन्म-मरण जैसे और नरक-निगोद जैसे | भयंकर दुःखों से बचना हो तो जो वीतरागता का मार्ग हमारे परम पूज्य पंचपरमेष्ठियों ने अपनाया, हम | भी जगत की मोह-माया के मार्ग का त्याग कर वही वीतरागता, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का मार्ग अपनायें। | सम्पूर्ण ग्रन्थ की पंक्ति-पंक्ति हमें संसार की असारता और वीतराग-विज्ञान की सारभूतता का संदेश || दे रही है। तीर्थंकरों में भगवान नेमिनाथ का वैराग्य, द्वारिकादाह, पार्श्वनाथ द्वारा नाग-नागिन की घटना, भगवान महावीर के जीव द्वारा शेर की पर्याय में पश्चाताप के आंसू बहाना आदि अनेक वैराग्य के ऐसे प्रसंग हैं, जो हमारे हृदयों को आन्दोलित करते हैं और हमें मनुष्य भव सार्थक करने का संदेश देते हैं। तीर्थंकर भगवन्तों की दिव्यध्वनि के द्वारा एवं मुनिराजों के उपदेशों द्वारा प्राप्त वस्तुस्वातंत्र्य, सर्वज्ञता, वस्तु का क्रमबद्ध परिणमन, कारण-कार्य-संबंध, पाँच समवाय आदि द्वारा भी जैनदर्शन के दिव्य संदेश हमें समता, शान्ति, निराकुलता और निष्कषाय रहने में पूर्ण सहायक हैं। ये सिद्धान्त ही जैनदर्शन और जैनधर्म के प्राण हैं। ___अहिंसामय आचरण के लिए और अतिसंग्रह की प्रवृत्ति के निरावरण के लिए तथा संयम-सदाचार का भी स्थान-स्थान पर प्रत्यक्ष व परोक्षरूप से संदेश दिया गया है। इन सबको धारण ज्ञान में लेने के लिए पाठक मनोयोगपूर्वक ग्रन्थ का आद्योपान्त अध्ययन-चिन्तन-मनन करके आत्महित में प्रवृत्त हों, इस मंगलकामना के साथ विराम। ॐ नमः / 25