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कर दिये । जब उन राजाओं ने मुनि बलदेव के चरणों में विनत अनेक सिंह देखे तो उनकी सामर्थ्य देखकर वह सब राजागण नतमस्तक हो शान्त हो गये। बलदेव मुनिराज ने सौ वर्ष तक घोर तप किया। अन्त में समाधि मरण करके वे तुंगीगिरि से ब्रह्म स्वर्ग में इन्द्र बने।
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जरासन्ध :- जरासन्ध राजगृह नगर के राजा बृहद्रथ और रानी श्रीमती के पुत्र और नवमें प्रतिनारायण थे। जरासंघ की एक पुत्री का नाम केतुमती था। जो जितशत्रु को विवाही गई थी। केतुमति को किसी मन्त्रवादी परिव्राजक ने अपने वश में कर लिया था; किन्तु वसुदेव ने महामंत्रों के प्रभाव से उसके पिशाच का निग्रह किया था। इस पिशाच के घातक के संबंध में भविष्यणाी थी कि जो राजपुत्री के पिशाच को दूर करेगा उस वसुदेव का पुत्र इस जरासंध का घातक होगा। इस भविष्यवाणी से जरासंघ के सैनिकों ने श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव को पकड़ लिया था; किन्तु उसी समय कोई विद्याघर वसुदेव को वहाँ से उठा | ले गया। समुद्रविजय आदि राजाओं के साथ रोहणी के स्वयंवर में न केवल यह आया था अपितु इसके पुत्र भी आये थे। वसुदेव से युद्ध करने के लिए जरासंध ने समुद्रविजय को कहा था और युद्ध के परिणामस्वरूप सौ वर्ष से बिछड़े हुए भाई वसुदेव से समुद्रविजय की भेंट हुई थी। सुरम्य देश के मध्य स्थित पोदनपुर का राजा सिंहस्थ जरासंध का शत्रु था। इसने इस शत्रु को बांधकर लाने वाले को आधा देश तथा अपनी जीवद्यदशा पुत्री देने की घोषणा की थी। वसुदेव ने सिंहस्थ को जीतकर तथा कंस से बंधवाकर इसे सौंप दिया था। घोषणा के अनुसार उसने जीवद्यशा को वसुदेव को देना चाहा किन्तु उसे सुलक्षणा न जानकर वसुदेव ने यह कहकर टाल दिया था कि सिंहरथ को उसने नहीं बांधा, कंस ने बांधा है। इसने कंस को राजा उग्रसेन और पद्मावती का पुत्र जानकर यह प्रसन्न हुआ था। यही कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया। कंस के मरने से व्याकुलित पुत्री जीवद्यशा ने इसे क्षुभित किया। परिणामस्वरूप इसके कालयवन नामक पुत्र ने यादवों के साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध किया और अन्त में युद्ध में मारे जाने पर इसके भाई अपराजित | ने युद्ध किया। तीन सौ छयालीस बार युद्ध करने पर भी अन्त में यह भी कृष्ण के बाणों से मारा गया।. ॥ २५
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