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बलदेव आगे बढ़े तो क्या देखते हैं कि एक मूर्ख व्यक्ति सूखे वृक्ष को सींच रहा है। बलदेव से रहा नहीं || गया, वे पूछ ही बैठे - “क्यों भाई! इस सूखे वृक्ष को सींचने से क्या लाभ है ? यह क्या पुन: हरा हो जायेगा | ?" देव ने उत्तर दिया - "मेरा वृक्ष सींचने से तो हरा नहीं होगा, किन्तु आपके निर्जीव कृष्ण स्नान
भोजनादि कराने से अवश्य जीवित हो उठेंगे।" बलदेव उपेक्षा करके आगे चल दिये। उन्होंने देखा एक | मनुष्य मृत बैल को घास, पानी दे रहा है। उन्होंने सोचा - "दुनिया में मूों की कमी नहीं है। वे कहने लगे - अरे भोले प्राणी ! इस मृतक को घास, पानी देने से क्या लाभ है ?" यह सुनते ही वह मनुष्य तन कर खड़ा हो गया और बोला - “दूसरों को उपदेश देनेवाले संसार में बहुत हैं, किन्तु स्वयं उस उपदेश पर अमल करने वाले कम ही मिलते हैं। मेरा मृतक बैल तो दाना-पानी नहीं खा सकता, किन्तु आपके मृतक कृष्ण अवश्य खाना खा सकते हैं। क्या यही आपका विवेक है?" यह सुनते ही बलदेव के अन्तर में एक झटका-सा लगा और प्रकाश की एक ज्योति कौंध गई। वे बोले “भद्र! आप ठीक कह रहे हैं। मैं अबतक मोह में अन्धा हो रहा था। कृष्ण का शरीर सचमुच ही प्राण रहित हो गया है।" देव बोला - "जो कुछ भी हुआ, भगवान नेमीश्वर स्वयं पहले ही सबकुछ बता चुके हैं। किन्तु सब कुछ जानते हुए आप जैसे विवेकी महापुरुष ने छह माह व्यर्थ ही खो दिये।" इसप्रकार कहकर देव ने वास्तविक रूप में प्रकट होकर अपना परिचय दिया। बलदेव ने जरत्कुमार और पाण्डवों की सहायता से तुंगीगिरी पर कृष्ण का दाह-संस्कार किया । जरत्कुमार को राज्य दिया और नेमीश्वर भगवान से परोक्ष तथा पिहितास्रव मुनि से उन्होंने साक्षात् दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली।
मुनि बलदेव अत्यन्त रूपवान थे। वे जब नगर में आहारचर्या के लिए जाते थे, तो उन्हें देखकर कामिनियाँ कामविह्वल हो जाती थीं। यह देखकर उन्होंने नियम लिया कि “यदि मुझे वन में ही आहार मिलेगा तो ही लूँगा, अन्यथा नहीं। उनके कठोर तप द्वारा शरीर तो कृश होता गया; किन्तु उससे आत्मा की निर्मलता बढ़ती गई। वे वन में ही विहार करते थे। यह बात राजाओं के भी कान में पड़ीं। वे अपने पुराने वैर-विरोध को स्मरण कर शस्त्रसज्जित होकर उसी वन में आ गये। सिद्धार्थदेव ने यह देखकर वन में सिंह ही सिंह पैदा || २५
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