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(३७० | कुमारों ने मद्यपान कर मदोन्मत्त अवस्था में मुनि का तिरस्कार किया। उन पर असह्य उपसर्ग किया। मुनि
| ने क्रुद्ध होकर यादवों समेत समस्त द्वारिका के नष्ट होने का श्राप दिया। इन्होंने अनुनय-विनय के साथ मुनि से श्राप वापिस लेने की प्रार्थना की। मुनि ने संकेत से बताया कि बलराम और कृष्ण को छोड़कर शेष सभी नष्ट हो जायेंगे। द्वारिका द्वैपायन मुनि द्वारा निकले अशुभ तैजस पुतले से जलकर नष्ट हुई। इस आपदा से बचकर निकले हुए दोनों भाई भ्रमण करते हुए कौशाम्बी के भयानक वन में पहुँचे, उस समय भयंकर गर्मी थी। मार्ग की अविरल यात्रा से क्लान्त और तृषार्त श्रीकृष्ण एक स्थान पर रुके। वे अपने ज्येष्ठ भ्राता से बोले - 'आर्य ! मैं प्यास से बहुत व्याकुल हूँ। मेरा कंठ सूख रहा है। अब मैं एक डग भी चलने में असमर्थ हूँ। कहीं से जल लाकर मुझे दीजिए। बलराम अपने प्राणप्रिय अनुज की इस असहाय दशा से व्याकुल हो | गये। वे सोचने लगे - “भरत क्षेत्र के तीन खंडों के अधिपति और बल-विक्रम में अनुपम यह मेरा भाई | आज इतना अवश क्यों हो रहा है ? जो जीवन में कभी थका नहीं, वह आज अकस्मात् ही इतना परिश्रान्त
क्यों हो उठा है ? कोटिशिला को अपने बाहुबल से उठानेवाला नारायण आज सामान्य व्यक्ति के समान निर्बलता अनुभव क्यों कर रहा है ?" ____ बलभद्र बोले - "भाई! मैं अभी शीतल जल लाकर तुम्हें पिलाता हूँ। तुम इस वृक्ष की शीतल छाया में तब तक विश्राम करो। यों कहकर वे जल की तलाश में चल दिये। श्रीकृष्ण वृक्ष की छाया में वस्त्र
ओढ़कर लेट गये। थकावट के कारण उन्हें शीघ्र ही नींद आ गई। उस समय जरत्कुमार भ्रमण करता हुआ उसी वन में आ निकला। दूर से उसने वायु से श्रीकृष्ण के हिलते हुए वस्त्र को हिरण का कान समझकर कान तक धनुष खींचकर शर सन्धान किया। सनसनाता तीर श्रीकृष्ण के पैर में जाकर विंध गया। श्रीकृष्ण ने उठकर चारों ओर देखा, किन्तु उन्हें वहाँ कोई दिखाई नहीं पड़ा। तब उन्होंने जोर से कहा - "किस अकारण बैरी ने मेरे पगतल को वेधा है? वह आकर अपना कुल और नाम मुझे बतावे।"
जरत्कुमार ने यह सुनकर अपने स्थान से ही उत्तर दिया - "मैं हरिवंश में उत्पन्न वसुदेव का पुत्र जरत्कुमार | हूँ। भगवान नेमिनाथ की दिव्यध्वनि में आया था कि 'जरत्कुमार के द्वारा कृष्ण का मरण होगा।' उस हत्या | २५
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