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सीता का हरण कर रावण उसे लंका ले गया और वहाँ के वन में उसे उतार कर अपना असली रूप दिखलाया। रावण को देखकर सीता भय से, लजा से और रामचन्द्र के विरह से उत्पन्न शोक से मूर्च्छित | हो गई। शीलव्रत को धारण करनेवाली सीता ने मन में विचार किया और यह नियम ले लिया कि जब तक रामचन्द्रजी की कुशलता का समाचार नहीं सुन लूँगी तब तक न बोलूँगी और न ही भोजन ग्रहण करूँगी। अब मेरे लिए जिनवर ही शरण हैं। अनुकूल समाचार न मिलने पर मैं सल्लेखना ले लूँगी।
सीता हरण से राम, लक्ष्मण अत्यन्त व्याकुल हुए। इसी समय सुग्रीव और हनुमान वहाँ आये। सभी समाचार इन्हें ज्ञात हुए। श्रीराम के दुःख से हनुमान आदि भी दुःखी हुए। श्रीराम को हनुमान की क्षमता के बारे में जानकारी दी गई। तदुपरान्त हनुमान ने कहा कि “यदि आप आज्ञा दें तो मैं सीता का पता लगाने लंका जा सकता हूँ।" आज्ञा प्राप्त करते ही हनुमान लंका नगरी जा पहुँचे । भ्रमर का रूप धर कर वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण लंका नगरी और रावण के महल की जानकारी ले ली। तदनन्तर नन्दनवन के प्रमद उद्यान के शिंशपा वृक्ष पर बैठे हुए दूत हनुमान ने अपना बन्दर जैसा रूप बना लिया और वन की रक्षा करने वाले पुरुषों को निद्रा में सुला कर वह स्वयं अशोकवृक्ष के नीचे बैठी सीता देवी के आगे विनीत भाव से जा खड़ा हुआ। वानर रूपधारी हनुमान ने सीता को नमस्कार कर उसे अपना सब वृतान्त सुना दिया और कहा कि “मैं राजा रामचन्द्रजी के आदेश से आया हूँ।" इतना कह उसने रामचन्द्र से लिखाकर लाये वह पत्र पिटारा सीता देवी के आगे रख दिया। वानर को देखकर सीता को सन्देह हुआ कि क्या यह मायामयी शरीर को धारण करनेवाला रावण ही है। इसप्रकार सीता संशय कर ही रही थी कि उसकी दृष्टि श्रीवत्स के चिह्न से चिह्नित एवं अपने पति के नामाक्षरों से अंकित रत्नमयी अंगूठी पर जा पड़ी।
हनुमान द्वारा प्रदत्त श्रीवत्स चिह्न और श्रीराम का संदेश पाकर सीता आश्वस्त होती हुई हर्षित हुई।
हनुमान के निवेदन करने पर सीता ने ग्याहरवें दिन आहार ग्रहण किया। लंका से वापस आकर हनुमान ने राम को सीता का सब समाचार सुनाया तथा सीता द्वारा प्रदत्त चूड़ामणि श्रीराम को अर्पित किया। हनुमान
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